अरे ओ बब्बा

दो साहित्यकार की रचनाओं का शेयर मार्केट ठंडा पड़ा था। पाठक उन्हें पूछ नहीं रहे थे। दोनों एक दूसरे से इसी मुद्दे पर बातचीत करते हैं। पहले साहित्यकार ने दूसरे से कहा - ऐसा है मित्र कि अब अपनी लेखनी में कुछ है नहीं किसी को देने के लिए, देख ही रहे हो कि हिन्दी का लेखक दो कौड़ी का नहीं रहा इस ‘बे-चना’ जोर-बाजार में, जिम्मेदारियों के मैदान में दम टूटा सो उसकी क्या कहें, ऐसे में बाबा बन जाना अपुन का भी अधिकार है। जन्मसिद्ध है या नहीं इस पर बालगंगाधर तिलक के विचार अलग हो सकते हैं लेकिन अधिकार तो है। असफल और निराश  लोग गुफाओं में घुस कर एक नई संभावना को जन्म देते रहे हैं।

 जानकार बताते हैं कि वस्त्र त्यागने की अपनी पुरानी फिलॉसफी है। आपत्तियों के बावजूद नंगों के नौ ग्रह आज भी वैधानिक रूप से बलवान होते हैं। अगर एक मौका नाचीज को भी मिले तो किसी को भला क्या दिक्कत हो सकती है। लोकतंत्र में सबको दांव मारने का अवसर होता है। अच्छी बात यह है कि सब ये बात जानते हैं और इसी का नाम राष्ट्रीय जागरुकता है। 

पहुँचे हुए साहित्यकारों से पता चलता है कि प्रतिस्पर्धा बहुत है और बाबालैण्ड चोर, उचक्कों, यहां तक कि हत्यारों से भी भर गया है, फिर भी आलसियों, मक्कारों के लिए कुछ जगह तो निकलती ही रही है। जबसे राजनीति में नाकाराओं के लिए स्थान और मौके बने हैं बाबाओं ने भी झन्नाट अंगड़ाइयां लेना शुरू कर दिया है। अपने यहां बारह साल में कूड़े-कचरे के दिन भी फिरने का रिवाज है तो बाबा होने को कब तक नजरअंदाज किया जा सकता था। सपना तो ये हैं कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब संसद में कामरेडों को छोड़ कर सब बाबा ही बाबा होंगे। 

चुन्नी भाई आप नाराज क्यों होते हो जी, सपना तो सपना है, दिखाने वाले दिखाते रहते हैं भले ही पूरा एक न हो। इधर अबकी बार भी पांच-दस बाबा आ गए हैं अपने हठयोग से और छप्पन इंच की छाती पे मूंग जैसा कुछ दलने की जी तोड़ कोशिश  में हैं। बावजूद इसके बाबाजियों को लग रहा है कि उन्होंने अभी तक देश के लिए कुछ किया नहीं सो कुछ करना चाहिए, लेकिन खुद ढंग का कुछ कर सकते तो बाबा बनने की नौबत क्यों आती। 

 दाढ़ू बाबा को बच्चा-बच्चा पार्टी का होना मांगता। उनका कहना है कि सदस्य बनाओ वोट बढ़ाओ। सो राजनीति में आने के बाद वोट बढ़ाना उनकी प्राथमिक विवशता है। बाबा मान रहे हैं कि भारतीय जच्चाएँ बच्चे नहीं वोट पैदा करती हैं। उनके आहवान पर सारी की सारी ‘वोट’ जनने लगें तो संख्याबल पर सतयुग आ जाएगा। उन्हें भगवान पर पहले भी भरोसा नहीं था, अब भी नहीं है इसलिए बच्चे पैदा करने के लिए लोगों को उकसा रहे हैं। जो कभी कहा करते थे कि बच्चे भगवान की देन हैं वे अब कह रहे हैं कि खुद पैदा करो। जो प्रेम के विरोधी हैं वे बच्चों के आग्रही हैं!! 

प्रेम करने से संस्कृति नष्ट होती है बच्चे पैदा करने से वोट बैंक मजबूत होगा। दो से देश का विकास होने में देर लग रही है इसलिए जल्दी करो, चार करो भई। थोक में करो जी, सरकार अपनी है इसलिए डरो मत आठ-नौ-दस करो। कुत्ते-बिल्ली से सीखो या फिर बकरी से ही प्रेरणा ले लो। हो सके तो चूहों से ही सीख लो। विकास करना है तो इंसान छोड़ सब बनने की जरूरत है। भीड़ का मतलब ताकत है, इसलिए भीड़ बढ़ाओ, मक्खी-मच्छर की तरह बढ़ो। जनसंख्या विस्फोट हमारी ‘विकास नीति’ हैं। भारतमाता को पोल्र्टीफार्म समझो। बच्चे राजनीति का कच्चा माल हैं। 

दाढ़ू बाबा के विकास की यही स्मार्ट-राजनीति है जिसमें विकास आगे बढ़ाने का नहीं, पीछे लुढकाने का नाम है। स्मार्टनेस के नाम पर पामेरेरियन पिल्ले को चूमने वाले इतनी जल्दी में हैं कि उन्हें दिख ही नहीं रहा कि उसका मुंह किधर हैं। पैंसठ साल में पैंतीस करोड़ से एक सौ पच्चीस करोड़ हो गए हैं। पता नहीं जनसंख्या है या रक्षा बजट जिसे बढ़ते जाना मजबूरी है। किन्तु सौभाग्य से देश जानता है कि उससे क्या गलती हो चुकी है। ‘भेडिया आया’ की राजनीति ने भोलेभाले लोगों को अब समझदार बना दिया है। 

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657