कमल जयंत
उत्तर प्रदेश में मुस्लिम मतदाताओं को अपने पक्ष में लाने के लिए सियासी दलों ने बिसात बिछानी शुरू कर दी है। हालांकि देश में होने वाले लोकसभा चुनाव भाजपा और कांग्रेस के गठबंधन के बीच होने की पूरी उम्मीद है। देश में कांग्रेस के नेतृत्व में ही इंडिया गठबंधन के बैनर के तले ही यूपी में भी सपा और कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़ेगी, सियासी गलियारों में इस बात की संभावना जताई जा रही है।
यूपी में भले ही दोनों दल मुस्लिमों को अपने पाले में लाने के लिए एक-दूसरे का मुखर विरोध कर रहे हों, लेकिन दोनों ही दल लोकसभा चुनाव में साथ मिलकर चुनाव लड़ने की भी बात कर रहे हैं। देश की आजादी के बाद से ये मतदाता एकतरफा कांग्रेस के पक्ष में ही वोट करता आ रहा था। इतना ही नहीं मुस्लिमों की तरह ही दलितों की भी अपनी कोई राजनीतिक पार्टी ना होने की वजह से ये वर्ग भी कांग्रेस के पक्ष में ही मतदान करता था, लेकिन 90 के दशक में बहुजन नायक कांशीराम जी के मूवमेंट के कारण खासतौर पर यूपी में दलित आंदोलन उभार पर आया, जिसकी वजह से ये वर्ग भी कांग्रेस से पूरी तरह से अलग हो गया और इसी दौरान राज्य में तेज हुए राम मंदिर और बाबरी मस्जिद आंदोलन के कारण मुस्लिमों का भी कांग्रेस से मोह भंग हो गया, क्योंकि मुस्लिम राम मंदिर का ताला खुलवाने से लेकर मंदिर का शिलान्यास कराने के लिए कांग्रेस को दोषी मानने लगा था और ये वर्ग लगभग पूरी तरह से मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में बनी समाजवादी पार्टी के साथ जुड़ गया।
भाजपा समर्थित एनडीए गठबंधन को केंद्र की सत्ता से हटाने के लिए कांग्रेस के नेतृत्व में बने इंडिया गठबंधन के सामने खासतौर पर कांग्रेस के लिए यूपी में अपना जनाधार बढ़ाने की चुनौती है। कांग्रेस अपने खोये हुए जनाधार को दोबारा पार्टी में वापस लाने के लिए प्रयासरत है। वहीं समाजवादी पार्टी मुस्लिमों के बीच अपनी एकतरफा पैठ को बनाए रखने के लिए संगठन में मुस्लिमों को उनकी आबादी के मुताबिक प्रतिनिधित्व दे रही है।
कांग्रेस का मकसद यूपी में गठबंधन में ज्यादा सीटें हासिल करने का है, यही वजह है कि मुस्लिमों को पार्टी की तरफ आकर्षित करने के लिए मुस्लिमों पर हो रहे उत्पीड़न के मामलों को वह प्रमुखता से उठा रही है, चाहे वह सपा नेता आजम खां के खिलाफ किए जा रहे सरकारी उत्पीड़न का ही मामला क्यों ना हो। हालांकि आजम के मुद्दे पर कांग्रेस के आक्रामक रुख को लेकर सपा और कांग्रेस में कुछ तल्खियाँ भी बढ़ीं थीं। कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के दखल के बाद ये विवाद खत्म हुआ।
अब यूपी में दोनों दलों के बीच मुस्लिमों में अपनी मजबूत पकड़ बनाने के साथ ही यहाँ इंडिया गठबंधन में अपने पक्ष में ज्यादा सीटें हासिल करना है। समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने साफ कर दिया है कि इंडिया गठबंधन का सपा हिस्सा बनेगी तो भी यूपी में 65 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ेगी। वहीं कांग्रेस भी इस बार यूपी की सभी 80 सीटों पर तैयारी कर रही है।
जबकि उत्तर प्रदेश में दलितों के मजबूत समर्थन के सहारे अभीतक राज्य की राजनीति में मुख्य विपक्षी दल की भूमिका में रही बहुजन समाज पार्टी का यहाँ भी जनाधार कमजोर हुआ है। वर्ष 2022 में यूपी में हुए विधानसभा के चुनाव में सीट के लिहाज से सबसे कमजोर स्थिति में बसपा ही रही, जबकि इस चुनाव में कांग्रेस भी लगभग ढाई फीसदी वोट ही हासिल कर सकी। जबकि उसे विधानसभा चुनाव में दो सीटें जीतने में सफलता मिली। अब कांग्रेस लोकसभा चुनाव में इन दोनों समाज को जोड़ने की कवायद में जुटी है।
राज्य में दलितों और मुस्लिमों की आबादी लगभग 42 फीसदी है और इन दोनों वर्ग के लोगों में एक और समानता है कि ये चुनाव में एकतरफा और सबसे ज्यादा वोट डालते हैं। लगभग डेढ़ साल पहले यहाँ हुए विधानसभा चुनाव में मुस्लिम वोट तो एकतरफा समाजवादी पार्टी के पक्ष में गया, जबकि अपने बहुजन के पुराने एजेंडे से हटकर सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय का नारा देने वाली बसपा से अन्य वर्गों के साथ ही दलित भी काफी हदतक अलग हुआ और भाजपा के साथ ही सपा को भी वोट किया।
2022 में राज्य विधानसभा चुनाव के नतीजों से यह साफ है कि अब यूपी में भी दलित अपना नया राजनीतिक ठिकाना तलाश रहा है। सहारनपुर में दलितों और सवर्णों के बीच हुई हिंसक घटना के बाद मायावती सहारनपुर जरूर गईं; लेकिन उसके बाद उन्होंने दलितों पर हुए उत्पीड़न के घटना के खिलाफ ना मुखर आन्दोलन किया और ना ही वह किसी भी घटना स्थल पर गईं चाहे हाथरस में दलित युवती के साथ सामूहिक दुष्कर्म के बाद उसकी निर्ममता पूर्वक की गई हत्या का ही मामला क्यों ना हो; यही वज़ह है कि दलित समाज बसपा के शीर्ष नेतृत्व के इस रवैये से लगातार खुद को उपेक्षित महसूस कर रहा है और अब इस वर्ग ने अपने लिए नए घर की तलाश शुरू कर दी है| वहीं मुस्लिम मतदाताओं को लेकर एक बात साफ है कि चुनाव में जो दल भाजपा को शिकस्त देता दिखता है, मुस्लिम उसी दल के पक्ष में एकतरफा वोट करता है।
दरअसल मुस्लिमों की कोई एक ऐसी पार्टी नहीं है, जिसे देश भर तो छोड़िए यूपी का मुस्लिम ही उसे अपनी पार्टी मानकर एकतरफा वोट करता हो। हालांकि मुस्लिमों का नेतृत्व करने और उनकी समस्याओं को उठाने के लिए राम मंदिर और बाबरी मस्जिद विवाद के दौरान कुछेक पार्टियां वजूद में आईं, जिनमें सैयद शहाबुदद्दीन की इंसाफ पार्टी का गठन हुआ, जबकि मुस्लिम लीग यहाँ पहले से ही वजूद में थी, हालांकि इंसाफ पार्टी अब वजूद में नहीं है और मुस्लिम लीग का नाम बदलकर इंडियन यूनियन लीग हो गया है, इसके अलावा नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी, यूपी यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट, पीस पार्टी, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन यानि असद्दुदीन ओवैसी की एआईएमआईएम ही वजूद में है, लेकिन इन पार्टियों के बारे में आम मुस्लिमों की राय अच्छी नहीं है और वे इन्हें भाजपा की बी टीम मानते हैं।
यूपी में करीब बीस फ़ीसदी मुस्लिम आबादी है और यहां 30 से अधिक लोकसभा सीटों पर करीब 21 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं। 12 सीटों पर 35 फीसद और पाँच सीटों पर करीब 45 प्रतिशत मुस्लिम वोट है; यही कारण है कि इस वर्ग को रिझाने की खातिर कांग्रेस इनकी समस्याओं को प्रमुखता से उठाते हुए केंद्र और यूपी की भाजपा सरकार के खिलाफ हमलावर है। वहीं सपा प्रमुख इंडिया के गठबंधन का हिस्सा होने की बात भी कर रही हैं, लेकिन यूपी में मुस्लिमों को अपने पाले में बनाए रखने के लिए कांग्रेस पर मुस्लिम विरोधी होने का आरोप लगा रही है।
वैसे इस संबंध में सामाजिक संस्था बहुजन भारत के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं पूर्व आईएएस कुँवर फतेह बहादुर का कहना है कि देश में लोकतन्त्र और संविधान को बचाने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है कि दलितों, मुस्लिमों और पिछड़ा वर्ग को उनके अधिकार दिलाने की बात करने वाले दल अपने निजी स्वार्थ को त्यागकर संविधान विरोधी ताकतों को देश की सत्ता से बाहर करने के लिए एकजुट होकर मैदान में उतरें, तभी सांप्रदायिक ताकतों को हराने के लिए संविधान समर्थक मतदाता एकजुट होकर इनके खिलाफ इंडिया गठबंधन के पक्ष में वोट करेगा। दलित-मुस्लिमों के साथ ही सांप्रदायिकता विरोधी धर्मनिरपेक्ष ताकतों को भी जोड़ना होगा, तभी देश में संविधान को खत्म करने की बात करने वालों को सत्ता से बाहर किया जा सकेगा।
उनका कहना है कि हाल ही में बिहार राज्य में हुई जातीय गणना से साफ हो गया है कि आबादी के मुताबिक सबसे ज्यादा जनसंख्या पिछड़ा वर्ग की ही है और दलितों और मुस्लिमों के साथ ही इन वर्गों को भी अभीतक वोट बैंक की तरह ही इस्तेमाल किया गया है, अगर पूरे देश में जातीय गणना होती है तो इन वर्गों की ही आबादी सबसे ज्यादा निकलेगी, ऐसी स्थिति में बहुजन समाज के लोगों को जिनकी आबादी 85 फीसदी है, इन्हें इनके अधिकार दिलाने के लिए धर्मनिरपेक्ष दलों को एकजुट होकर ही लोकसभा का चुनाव लड़ना चाहिए।