राष्ट्रीय खाद्यः धोखा

हमारा देश एक खाऊ देश है। हम न दिखने वाले दुख से लेकर चारा तक खा लेते हैं। बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें तो कभी चलते-फिरते चने की तरह जेसीबी तक खा लेते हैं। बात खाने की हो तो हम लोग धोखे को लेकर बहुत संवेदनशील होते हैं। टॉफी, पिपरमेंट नहीं मिलने पर जिस तरह बच्चा हायतौबा मचाता है वैसा ही धोखा को लेकर नेता तैयार रहते हैं। दुनिया वाले, जो भी हमारी खबरे देखते सुनते हैं, मानते हैं कि हम एक धोखा-खाऊ देश हैं। 

कभी हमें दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र समझा जाता था, अब हम सबसे बड़े धोखाखाऊ हैं। धोखाप्रेमी जल्द ही धोखा को राष्ट्रीय  खाद्य घोषित करवाने के लिए प्रगति मैदान में नेताओं को धो (धोकर) खा (खाना) खाने के लिए तैयार रहने का अल्टीमेटम जारी किया है। नेताओं को भी समझ में आ गया कि जनता को अच्छी सड़के मिले न मिलें, विकास हो न हो, रोटी भी मिले न मिले, धोखा जरूर देना चाहिए। 

जब तक धोखा मिलता है जनता वोट देने के लिए आतुर रहता है, धोखा नहीं मिले तो भगवान सा फील करने लगती है। धोखा है तो नेता हैं, धोखा गायब तो समझो कि नेता भी गायब। युगों-युगों से धोखा खाने वाले धोखाखाऊ की संतति फुसफुसाती है कि जनता को धोखा खाने में व्यस्त रखो और खुद अपने ‘खाने’ का अवकाश  निकाल लो। इसी का नाम धोखानीति है। समझने वाले समझ गए हैं ना समझे वो धोखाथूकू है।

धोखे में जादुई गुण होते हैं। बंदे लोगों से मिलें और उन्हें धोखे का मज़ा चखने को न मिले तो सार्वजनिक बेचैनी और घबराहट के दौरे पड़ने लगते हैं। बिन धोखा जीवन नीरस लगने लगता है। एक तरह के रुटीन वाले जीवन से मन ऊब न जाए इसलिए हर व्यक्ति धोखे को ऐसे याद करता है जैसे श्राद्ध पर गुजरों को याद करते हों। वो तो अच्छा है कि अभी पंडितों ने धोखा पुराण नहीं लिखा वरना गली गली धोखाराधना की कथा के आयोजन होने लगते। भक्तगण धोखाप्रदोष का व्रत रखते और पंडितजी ‘दूधो नहाओ, पूतो फलो’ की जगह ‘धोखे खूब खाओ, नए नए अनुभव पाओ’ के आसिस देते। 

जनता बड़ी चालाक होती है। धोखा अधिक हुआ तो वो धोखा खाने से संभल जाते हैं। भ्रष्टाचार-लूटखोर, बलात्कारी नेता में अपना जात-पात, धर्म, भाषा देखकर संतुष्ट हो जाती है और मस्त सो जाती है। इधर बेचारे अमीर आदमी को अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई को धोखे के नाम पर स्वाहा करना पड़ता है। आप कहेंगे कि वो तो धोखा देने वाले होते हैं, धोखे की सांस लेते हैं, धोखे का गुणगान करते हैं, फिर उन्हें कौन धोखा दे सकता है। तो भई जान लो, यह सब बैंक का होता है, लोन देती है बैंकें, बुला बुला के देती है, परंतु धोखा उन्हें उनकी जेब से लेना पड़ता है। बैंकों को जैसे ही समझ पड़ेगी वो गरीब जनता की पूँजी अमीरों के जेब में डालने के लिए धोखाखाऊ नई-नई स्कीम चलाएगी। 

दीनहीन अमीर बेचारे! आदत नहीं उन्हें धोखा खाने की। फेरी वाला जब धोखा खाता है तो उनकी आत्मा अंदर से चीख उठती है- ‘धोखा मिल रहा है, धोखा देख रहे हैं, सरकार धोखा खिलाऊ है ! अगर यही हाल रहा तो देख लेगें अगले चुनाव में। लेकिन बहुत कम लोगों को ध्यान आता है कि चुनाव वाले दिन ये लोग घर में बैठे धोखा खाते रहते हैं और वोट डालने जाते ही नहीं हैं।

इधर भगवान किसान के साथ सांप-सीढ़ी का खेल खेलता रहता है। धोखा समर्थन मूल्य वाला बीज मिला कि नहीं किसान अपने सारे खेतों में धोखा समर्थन मूल्य वाले बीज बो देता है। फिर जो होता है वह हम जानते ही हैं। ऐसी खेती करने के लिए पीठ पर लाठी की मार मिलती है। किसान मनाता रहता है हमारा ईमान सामने वाले के धोखे का तोड़ बने, लेकिन वह भूल जाता है कि धोखा वह चाकू है जो समर्थन मूल्य के फल पर गिरे या फिर समर्थन मूल्य का फल धोखे के चाकू पर, नुकसात तो किसान को होना है।

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, चरवाणीः 7386578657