आने और जाने के बीच

“अब तुम्हें क्या बताऊँ भैया, जब रोना शुरू करता हूँ तो समझ नहीं आता कि कहाँ से शुरु करूँ। इंसान रोने के लिए हर जगह इज्जत और सम्मान तो खोज नहीं सकता। अब तो लोग रोने को भी जश्न का प्रतीक मानने लगे हैं। आजकल तो रोने के लिए वाररूम की व्यवस्ता की जा रही है। जहाँ बड़े आदर और संयम से रोया जाता है। ऐसा रोना हमने पहले कभी नहीं देखा। वे रोने वालों को कह रहे हैं कि आगे बढ़ो, दुनिया आगे बढ़ रही है, विकास हो रहा है! फिर कहते हैं वापिस जाओ, बाप-दादा बुला रहे हैं, पीछे सब अच्छा है!! 

वेदों की ओर लौटना तो समझते हैं लेकिन ये नेता लोग न जाने कब हमें आगे बढ़ने के लिए कहते हैं और कब पीछे हटने के लिए। अरे, मुझे समझ नहीं आ रहा कि आगा अच्छा है या पीछा!! नेता जो करे वह सही और हम कुछ कर दें सब पागल-पागल कहना शुरु कर देते हैं। नहीं-नहीं, हम राजनीति पर बात नहीं कर रहे हैं और न ही करेंगे। हमें क्या करना है, एक पैर जमीन पर दूसरा पैर कब्र में जो हमारे सिर पर खड़ा होता है उसे यमराज ही नजर आते हैं। हमें क्या फर्क पड़ता है कि कुर्सी पर टुच्चा बैठे या लुच्चा? 

अगर आप आज जीवित हैं तो आपके लिए रामू काका हैं। क्या पता कल तुम मर जाओ और फिर जन्म लो तो रहीम चाचा बन जाओ। लोग कहते हैं कि लाखों योनियाँ हैं, आदमी कुत्ता या बिल्ली भी बन सकता है। क्या इसकी कोई गारंटी है कि कोई आदमी बन जायेगा? इसलिए हम राजनीति की बातें करके अपना और आपका कीमती समय क्यों बर्बाद करें? ...अब देखो, तुम इतने ध्यान से क्यों सुन रहे हो? क्या हमने तुम्हें डराया है? या आपने हमसे कोई कर्ज लिया है? ...अरे भाई आप इंसानियत के पक्षधर हैं, तभी हमारा दुख बांट रहे हैं। 

नहीं तो पता करो कि यहाँ से वहाँ तक कोई किसी के मन की बात इतना ध्यान से सुनता है भला। बकवास सुनने का समय किसी के पास नहीं है। बूढ़े लोग सारा समय, सारा दिन घर पर ही बैठे रहते हैं और एक पल बाँटने वाला भी कोई नहीं है। एक समय था जब लोग फूल लेकर खड़े रहते थे। ...पर पुरानी बातें छोड़ो. ...हाँ, हम तो कह रहे थे कि आत्मा कैसी भी हो, सूख जाती है। बच्चों को शिक्षित किया जाए ताकि उनका जीवन बेहतर हो सके। वे मनुष्य बन जायेंगे और हममें से कुछ लोग मोक्ष भी प्राप्त कर लेंगे। 

अब जब धरम-करम का समय आया तो पंछी सारे फुर्र हो गए। वे पितृ- दिवस, मातृ दिवस के दिखावे वाले दिनों पर स्टिकर लगाकर ऐसा ढोंग करते हैं जैसे उनका दायित्व पूरा हुआ। यह सोचकर कि पिता को पूरे साल भर बुखार नहीं होगा। ...बताओ हमें क्या करना चाहिए! बुढ़ापा तो बुढ़ापा है, रुकेगा थोड़े न! जो आया है वह जाएगा भी! अमर बाबू पिछले महीने मर बाबू हो गए। बच्चे विदेश में, मजबूरी बनी रही, कोई नहीं आया। बूढ़े कंधों ने अपने ही जैसों में से एक कंधा देकर यह आस जताई कि कल कुछ हो जाएगा तो वे कंधे देंगे। 

हम में से एक ने चिता को आग लगाई... हमें नहीं पता कि किसी ने ऊपरी दुनिया का दरवाजा खोला या नहीं। न पूजा, न तेरहवीं, न फलां न ढंका। वे एक सफल व्यक्ति थे, लेकिन उन्होंने बहुत अपमानजनक तरीके से अपना देह छोड़ दिया। ऐसे भी कोई जाता है भला! हमने कैसी दुनिया बनाई है! ...जहाँ जीते जी इंसान को कोई नहीं पूछ रहा है। मरने पर च..च..च..च...करने के सिवाय कुछ नहीं रह जाता। यह जीने को भार और मरने को मुक्ति मानकर उत्सव के रूप में मनाना अपना दायित्व। जीवन आने और जाने के बीच भी कुछ होता है। वह कुछ के बीच जीना कभी-कभी बहुत दुश्वास कर जाता है।”   

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657