जी 20 शिखर बैठक से ठीक पहले चीन सरकार ने एक बार फिर नक्शा जारी कर ऐसे कई इलाकों पर अपना अधिकार जताया, जो उसके नहीं हैं। इन इलाकों में भारत का समूचा अरुणाचल प्रदेश और अक्साईचिन तो है ही, साउथ चाइना सी और ताइवान के वे इलाके भी हैं, जिन पर अन्य देश दावा करते हैं। हालांकि चीन ने कोई पहली बार इस तरह का दावा नहीं किया है।
चीन पहले भी ऐसे दावे करता रहा है और यह इसकी पुरानी आदत है। मगर विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने एक कदम आगे बढ़ते हुए यह भी जोड़ा कि ऐसे कदम सीमा से जुड़े सवालों को हल करना और मुश्किल बना सकते हैं। गौर करने की बात है कि अभी-अभी साउथ अफ्रीका के जोहानिसबर्ग में हुई ब्रिक्स शिखर बैठक के दौरान चीन के प्रयासों के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग के बीच द्विपक्षीय बैठक नहीं हुई। इसके पीछे एक बड़ी वजह यह बताई जाती है कि एलएसी पर दोनों पक्षों के बीच जारी गतिरोध दूर करने की कोशिशें सफल नहीं हुईं और भारत ने पहले से ही स्पष्ट कर रखा है कि सीमा पर गतिरोध दूर करके 2020 से पहले की यथास्थिति बनाए बगैर दोनों देशों के रिश्ते सामान्य नहीं हो सकते।
हालांकि मौजूदा विवाद पर चीन की तरफ से कहा जा सकता है कि उसके रुख में किसी तरह का बदलाव नहीं आया है और ताजा मैप के जरिए उसने अपने पुराने स्टैंड को ही बस एक बार और स्पष्ट किया है। लेकिन उसे समझना होगा कि चाहे इस तरह से मैप जारी करने की बात हो या भारत के अरुणाचल प्रदेश में आने वाले कुछ इलाकों के नाम बदलने का (जैसा कि उसने इसी साल अप्रैल में किया था), इससे माहौल बिगड़ता है और दोनों देशों के रिश्तों में विश्वास बहाली की प्रक्रिया बाधित होती है।इतिहास और चीन की हालिया साम्राज्यवादी नीतियों के मद्देनजर यह निष्कर्ष साफ है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा से लगते इलाके में सुरक्षा की कोई भी चूक हमें भारी पड़ सकती है।
पिछले दिनों दक्षिण अफ्रीका में संपन्न ब्रिक्स देशों के सम्मेलन में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात के बाद आस जगी थी कि दोनों देशों के रिश्तों पर जमी बर्फ कुछ कम होगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हालाकि शी जिनपिंग के दिल्ली जी-20 शिखर सम्मेलन में न आने की घोषणा से साफ हो गया कि चीन के असली मंसूबे क्या हैं। बहरहाल, चीन की ये अविश्वसनीय नीतियां हमें सचेत रहने के सबक देती हैं। बहरहाल, कूटनीतिक संबंधों में गरमी-नरमी के बावजूद बीजिंग द्वारा एलएसी पर अपने इलाके में लगातार किये जा रहे संरचनात्मक निर्माण के मद्देनजर भारत ने भी अपनी सीमा पर बुनियादी ढांचे को मजबूत बनाने के प्रयास तेज कर दिये हैं।
इसी कड़ी में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह 12 सितंबर को वास्तविक नियंत्रण रेखा यानी एलएसी पर सीमा सड़क संगठन अर्थात बीआरओ द्वारा निर्मित 2941 करोड़ रुपये की लागत वाली 90 परियोजनाओं का उद्घाटन करेंगे। इसके अंतर्गत संवेदनशील इलाकों में सड़कें,पुल, सुरंग और हवाई क्षेत्र का निर्माण शामिल है। ये परियोजनाएं सीमावर्ती राज्यों व केंद्रशासित प्रदेश लद्दाख में स्थित हैं।
सीमा सुरक्षा की प्राथमिकता के मद्देनजर बीते साल भी राजग सरकार के दौरान 2897 करोड़ रुपये की लागत वाली बीआरओ बुनियादी ढांचा परियोजनाएं राष्ट्र को समर्पित की गई थीं। यहां उल्लेखनीय है कि युद्धकाल में इस दुर्गम क्षेत्र में वायु सेना की सक्रियता की जरूरत के मद्देनजर हवाई पट्टी की उपलब्धता अपरिहार्य है। इसके चलते ही रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह इस क्षेत्र में एक हवाई पट्टी की आधारशिला भी रखेंगे।
उल्लेखनीय है कि बीआरओ द्वारा पूर्वी लद्दाख के रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण न्योमा क्षेत्र में 218 करोड़ रुपये की अनुमानित लागत से इस हवाई पट्टी का निर्माण किया जायेगा। जो इस संवेदनशील इलाके की सुरक्षा तैयारियों की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। भारत-चीन के बीच हाल के वर्षों में एलएसी पर हुए टकराव के मद्देनजर उत्तरी सीमा पर भारतीय वायु सेना को शक्तिशाली बनाना बेहद जरूरी है।
जिससे वायुसेना तत्परता से युद्ध के दौरान अपनी भूमिका निभा सकेगी। अतीत के अनुभव बताते हैं कि वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध व कारगिल युद्ध में पाक के खिलाफ समय रहते वायुसेना की ताकत का उपयोग किया जाता तो युद्ध की तस्वीर कुछ और होती। निस्संदेह, हवाई ताकत में विस्तार में किसी भी तरह की देरी राष्ट्रीय सुरक्षा हितों के लिये हानिकारक साबित हो सकती है। चिंताजनक तथ्य यह भी कि अरुणाचल प्रदेश में रणनीतिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण सेला सुरंग का निर्माण कार्य विभिन्न कारणों से समय पर पूरा नहीं हो पाया है।
उल्लेखनीय है, सेला सुरंग अग्रिम मोर्चों पर सैनिकों को पहुंचाने और हथियारों की तेजी से आपूर्ति में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। ऐसे में इस महत्वाकांक्षी परियोजना को समय रहते पूरा कर लिया जाना चाहिए। दरअसल, यह सुरंग विकट मौसम में भी सेना को हथियार-रसद आपूर्ति में लाभदायक सिद्ध होगी। उधर बीआरओ के शीर्ष अधिकारी स्वीकार रहे हैं कि सीमा पर बुनियादी ढांचे को विस्तार देने में भारत चीन से पीछे है। वे विश्वास जताते हैं कि इसके बावजूद सैन्य अभियानों को बढ़ावा देने के लिये रणनीतिक परियोजनाओं के त्वरित कार्यान्वयन में देश तेजी से आगे बढ़ रहा है।
शीर्ष अधिकारी विश्वास जता रहे हैं कि आगामी तीन-चार वर्षों में भारत अपनी सीमा में ढांचागत निर्माण के क्षेत्र में चीन की बराबरी कर लेगा। इसके बावजूद हम मान लें कि आने वाले वर्षों में बीजिंग वास्तविक नियंत्रण रेखा पर अपने कदम पीछे नहीं हटाएगा। हालांकि, दोनों ही पक्षों के बीच सैन्य-कूटनीतिक स्तर पर बातचीत की संभावना लगातार बनी रहती है, लेकिन इसके बावजूद चीन की छल-बल की नीति को देखते हुए हम अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा से किसी भी कीमत पर समझौता नहीं कर सकते।
हमें एलएसी पर अपनी सशक्त उपस्थिति को निरंतर बनाये रखना होगा।निस्संदेह, लद्दाख के इस क्षेत्र में हवाई ताकत विस्तार के लिये बुनियादी ढांचे में वृद्धि की सख्त जरूरत है। वैसे भी जी-20 शिखर सम्मेलन से चीनी राष्ट्रपति का कन्नी काट लेना चीन की भारत के प्रति गहरी दुर्भावना को दिखाता है। चीन भारत को एक एशियाई महाशक्ति मानना तो दूर एक महत्वपूर्ण देश के रूप में भी स्वीकार नहीं करना चाहता। वैसे भी भारत के प्रति चीन की दुर्भावना समय-समय पर सामने आती ही रहती है।
उसने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जैश-लश्कर के आतंकियों के विरुद्ध आए प्रस्तावों को पारित नहीं होने दिया। जब भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के फलस्वरूप भारत को परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह से छूट मिलने का प्रस्ताव आया, तब भी चीन ने रोड़े अटकाए थे। रूसी नौसेना दक्षिण चीन सागर और जापान सागर में चीनी नौसेना की पिछलग्गू बनकर गश्त कर रही है। इससे एशिया में शक्ति संतुलन चीन की ओर झुक रहा है और क्वाड के देशों और खासकर जापान एवं भारत के लिए चुनौतियां बढ़ रही हैं।
ऐसे में भारत को अमेरिका और जी-20 में शामिल दूसरे पश्चिमी देशों से यह प्रश्न करना चाहिए था कि कमजोर हो चुका रूस बड़ा खतरा है या विस्तारवादी चीन ? बहरहाल भारत ने चीन पर पूर्वी लद्दाख में अपनी आक्रामक सैन्य मुद्रा के माध्यम से 3,488 किलोमीटर लंबी वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर युद्ध जैसी स्थिति पैदा करने की कोशिश करके द्विपक्षीय संबंधों को 1990 के दशक में वापस लाने का आरोप लगा चुका है।
यह कहने से कुछ ही समय पहले कि शी जिनपिंग, जो पीएलए के प्रमुख कमांडर भी हैं, ने 1993 के शांति समझौते को सचमुच तार-तार कर दिया था, मोदी सरकार ने द्विपक्षीय संबंधों पर गंभीर परिणामों के साथ उन्हें एक राजनयिक अल्टीमेटम दिया है। नरसिम्हा राव-जियांग जेमिन युग के दौरान हस्ताक्षरित 1993 का समझौता यह स्पष्ट करता है कि सैन्य बलों को एलएसी पर न्यूनतम स्तर पर रखना होगा। भारत की तरह से स्पष्ट कहा जा चुका है कि अगर चीन ने तनाव कम नहीं किया और एलएसी से पीएलए बलों को पीछे नहीं हटाया तो पिछले तीन दशकों में द्विपक्षीय संबंधों में हासिल किए गए सभी लाभ खो जाएंगे।
“भारत एलएसी पर सैन्य स्थिति से निपटने में काफी सक्षम है, लेकिन अगर पीएलए ने तनाव कम नहीं किया तो पूरे आर्थिक संबंध खराब हो जाएंगे। अगर यही स्थिति जारी रही तो चीन के लिए सब कुछ सामान्य नहीं हो सकता। यह निर्णय महासचिव शी जिनपिंग को लेना है। एलएसी पर चीनी रुख आक्रामक बना हुआ है, द्विपक्षीय संबंधों पर घड़ी टिक-टिक कर रही है क्योंकि भारत ने मन बना लिया है कि अगर कुछ हफ्तों के भीतर विघटन नहीं हुआ तो वह बीजिंग के लिए आर्थिक दरवाजा बंद कर देगा।