सवाई माधोपुर से लगभग 40 किलोमीटर पूर्व में स्थित खण्डार का किला रणथम्बोर के सहायक दुर्ग व उसके पृष्ठ रक्षक के रूप में विख्यात है। प्रकृति ने खण्डार के किले को अद्भुत सुरक्षा कवच प्रदान किया है। प्रकृति की गोद में बसा यह दुर्ग घने जंगल, पूरे साल बहने वाली नदियों और अथाह तालाबों से घिरा है।
खण्डार किला नैसर्गिक खूबसूरती का खज़ाना है, जिसके पूर्व में बनास व पश्चिम में गालँदी नदियां बहती हैं। वहीं यह दक्षिण दिशा में नहरों, तालाबों, तथा अनियमित आकार की पर्वत श्रंखलाओं से घिरा हुआ है। एक ऊँचे पर्वत शिखर पर स्थित है, जंगल की वजह से समीप जाने पर ही यह दिखाई देता है। इसकी किलेबन्दी काफी सुदृढ़ है। इसलिए अबुल फ़ज़ल ने इसे ‘बख्तरबंद किला’ कहा है।
खण्डार किले के ऊपर पहाड़ी पर जाने का मार्ग पथरीला और घुमावदार है। किले के अंदर पहुँचने के लिए 3 विशाल और सुदृढ़ दरवाज़ों को पार करना होता है। मुख्य प्रवेश द्वार से आगे चलने पर मार्ग दाहिनी ओर घूम जाता है, जहाँ सैनिक चौकियां और सुरक्षा प्रहरियों के आवास गृह बने हैं।
श्री दिगम्बर जैन पार्श्वनाथ जिनालय
कहते हैं आठवीं नौवीं शताब्दी में खण्डार-किला बनाया गया, किन्तु मंदिर के कारण परकोटा छोड़ दिया गया, उसे घुमाया गया। इससे प्रतीत होता कि यहाँ किसी ने मंदिर पर कोई आक्रमण नहीं किया है, न ही जैन प्रतिमाओं को खण्डित किया। प्रतिमाएँ पूरी तरह सुरक्षित हैं। उस समय जैन मंदिर का बहुत महत्व रहा होगा, जिसके कारण किला के परकोटे को मोड़ कर वहां बुर्ज बनाये गये।
अपने आप में यह अनुपम उदाहरण है कि हजारों वर्षों से अब भी यहाँ के जैन मंदिर में अखण्ड प्रतिमाओं का नित्य पूजा अभिषेक हो रहा है। अन्यथा अन्यत्र अनेक राज-दुर्गों में जैन मंदिर तो हैं किन्तु वहाँ खण्डित पुरावशेष ही बचे हैं। खंदार दुर्ग के जिनायतन की कुछ जिन प्रतिमाएँ सवाई माधोपुर के चमत्कारजी मंदिर में स्थापित किये जाने की सूचना है।
खंडार दुर्ग की प्राचीर के बाह्य भाग में स्थित यह जिनालय छतदार है। इसका शिखर नहीं है। बरामदानुमा स्थान में पूजा सामग्री और पूजा के परिधान सुखाये जाते हैं। यहाँं एक ही चट्टान में चार तीर्थंकर प्रतिमाएँ तरासी गईं स्थापित हैं। ये सुन्दर व अखण्डित हैं और सभी में उन उन तीर्थंकरों के चिह्न हैं। प्रवेश करते ही दर्शक के बायें तरफ से प्रथम प्रथम तीर्थंकर महावीर भगवान की पद्मासन प्रतिमा है।
यह लगभग 6 फीट उत्तुंग है। प्रतिमा के पादपीठ पर सिंह का चिह्न बना हुआ है। चट्टान में ही द्वितीय स्थान पर तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ भगवान की कायोत्सर्ग प्रतिमा है। इसकी ऊचाई लगभग 7 फीट है। इस प्रतिमा के पादपीठ पर सर्प का चिह्न है एवं मस्तक के ऊपर सप्त सर्प-फणों से आटोपित शिल्पित किया गया है। तृतीय क्रम पर प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ-ऋषभनाथ भगवान की प्रतिमा है।
इसके पादपीठ पर सुन्दर वृषभ चिह्न अंकित है, जो उभरा हुआ है। यह प्रतिमिा पद्मासन मुद्रा में है। अन्त में सोलहवें तीर्थंकर शांतिनाथ भगवान की मूर्ति है। इसके पादपीठ पर हिरण चिह्न उत्कीर्णित है। यह प्रतिमा भी पद्मासनस्थ है। पद्मासन तीनों प्रतिमाओं की ऊँचाई लगभग समान है।
सभी मूर्तियों पर श्रीवत्स चिह्न है किन्तु यह अन्यत्र से हटकर है, इनपर बनाया गया श्रीवत्स कुछ लम्बाई लिये हुए कलायुक्त है और बड़ा है।
चतुर्थ प्रतिमा के उपरान्त एक दीवार है। कहते हैं इतने महत्वपूर्ण जिनालय में सम (चार) प्रतिमाएँ नहीं हो सकतीं। विसम-तीन, पांच या सात प्रतिमाएं होना चाहिए। निश्चित ही दीवार के अन्दर एक और प्रतिमा छिपी हुई हो सकती है।
निकटस्थ तारागढ़ नगर की छोटी सी जैन समाज द्वारा इस मंदिर की प्रतिदिन की पूजा-अर्चना करवायी जाती है। यहां की कमेटी के पदाधिकारी श्री ललित जैन ने बताया कि मंदिर की दीवारों से सटकर बने दुर्ग की विशाल प्राचीर जर्जर है। पिछले वर्ष इस दीवार का मलवा जिनालय पर गिर गया था, जिससे कुछ क्षति हुई थी। पुनः कभी भी मलवा गिर सकता है।
गुफा मंदिर और चट्टानों पर प्रतिमाएँ
खंडार किला में, अन्दर और बाहरी हिस्सों में तथा मार्ग में पड़ने वाली चट्टानों में अनेक जिन प्रतिमाएँ हैं। हमें प्रतीत होता है कि सम्भतः स्थानीय लोगों और जैन समाज को भी यहाँ की सभी जिन प्रतिमाओं की जानकारी नहीं होगी, क्योंकि अनेक दुर्गम चट्टानों में तीर्थंकर प्रतिमाएँ शिल्पित हैं। जहां तक लोग पहुँच सके वहीं के चित्र प्रकाश में आ सके होंगे।
एक
एक गुफा की चट्टान में लगभग बीस तीर्थंकर प्रतिमाएँ तथा जैनशासन देवी देवताओं की प्रतिमाएँ। इनमें कुछ क्रम तो ऐसा है कि दो तीर्थंकर पद्मासन में फिर एक कायोत्सर्गासन में, पुनः दो तीर्थंकर पद्मासन में शिल्पित हैं। किन्तु सभी प्रतिमाएँ स्वतंत्र देवकुलिका में बनाईं गईं हैं।
यहां की मुख्य (बड़ी) पद्मासन प्रतिमा के पादपीठ पर आराधक और यक्ष-यक्षी उकरित हैं। क्षरण होने से इन परिकरों की स्पष्टता खत्म हो गई है। प्रतिमा के कर्ण, नासिका, ओष्ट आदि भी स्पष्टता खो चुके हैं। इस मूलनायक प्रतिमा के मस्तक पर सर्प के सात फण दृष्टिगत हैं। इससे यह तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा है।
इस मूलनायक प्रतिमा के दाहिने पार्श्व से आगे चट्टान में देखेंगे तो पहले पद्मासन तीर्थंकर हैं, जिनके आसन के निचने भाग में सिंह बना है, जिससे यह तीर्थंकर महावीर की प्रतिमा निर्धारित होती है। इसके उपरान्त कायोत्सर्गस्थ प्रतिमा है, जिसके नीचे अश्व-घोड़ा बना हुआ है, जो तीर्थंकर संभवनाथ का द्योतक है। अगले क्रम पर दो पद्मासन प्रतिमाएं हैं।
पहली के अधोभाग में गज उकरित है, जिससे तीर्थंकर अजितनाथ ज्ञात होते हैं। उनके पास की पद्मासन प्रतिमा के नीचे वृषभ-बैल शिल्पित है, जिजसे इस प्रतिमा को तीर्थंकर वृषभनाथ की प्रतिमा कहा जायगा। इसके बाद के क्रम पर कायोत्सर्गस्थ प्रतिमा है, इसका चिह्न बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ का द्योतक कच्छप बना है।
अगले क्रम के पुनः दो तीर्थंकर पद्मासनस्थ हैं। इनमें से प्रथम के अधोभाग में सुन्दर स्वस्तिक शिल्पित है। और मस्तक ऊपर सर्प के पांच फण आच्छादित हैं, जिससे यह सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा ज्ञात होती है। जिन प्राचीन प्रतिमाओं में लांछन नहीं बनाये गये, ऐसीं अति प्राचीन प्रतिमाओं में सप्त-फण वाली मूर्तियों को पार्श्वनाथ की मूर्ति और पांच फणयुक्त प्रतिमा को सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा के रूप में पहचाना जाता है।
इस पद्मासन युगल की दूसरी प्रतिमा के नीचे पद्म-कमल टंकित किया गया है, जिससे यह तीर्थंकर पद्मप्रभ की प्रतिमा है। आगे इस ओर क्षेत्रपाल आदि शिल्पित हैं।
उक्त सभी प्रतिमाएं मूलनायक पार्श्वनाथ प्रतिमा के बायें ओर के क्रम में हैं। इसी तरह मूलनायक प्रतिमा के दायें तरफ भी अनेक प्रतिमाएँ शिल्पित हैं।
विशेषता यह है कि तीर्थकर के चिह्न बहु बड़े बड़े उत्कीर्णित किये गये हैं। ये चिह्न तीर्थंकर प्रतिमा के आकर के लगभग एक तिहाई आकर में हैं। इतने विशाल चिह्न हमने अन्यत्र कहीं शिल्पित नहीं देखे हैं। ये अपनेआप में अनुपम उदाहरण हैं और सम्पूर्ण भारत के जैन शिल्प में खंदार के शिल्प की विशेषता उद्घोषित करते हैं।
दो
उपरोक्त तो केवल एक गुफा का परिचय है। इस तरह कीं यहां कई गुफायंें और चट्टानों पर जैन शिल्पांकन हैं।
एक चट्टान की प्रतिमाओं को देखकर तो प्रतीत होता है कि ये निकट के एक दो वर्षों के अन्दर ही उद्घाटित की गई हैं, किन्तु वहाँ पहुँचने का कोई आसान तरीका नहीं है।
उन्हें केवल किला के बुर्ज से नीचे झांक कर देखा जा सकता है। यहाँ के दाहिनी ओर की चट्टान में एक देवकुलिका में तीन छबियां शिल्पित हैं। मध्य में कायोत्सर्गस्थ दिगम्बर जिनमुद्रा है और उसके दोनों ओर एक एक शासनदेव या प्रतीहारी दर्शाये गये हैं। ये दोनों भी समपादासन में लगभग जिनाकृति की ऊँचाई के हैं।
बायीं ओर की चट्टान में दो देवकुलिकायें हैं। एक में एक ही आकृति है, जो खंडित है और दूसरी देवकुलिका में दो कायेात्सर्गस्थ दिगम्बर जिनाकृतियां हैं।
तीन
एक चट्टान गुफा में दो पंक्तियों में अनेक पद्मासन जिन तीर्थंकरों की मूर्तियां बनाई गईं हैं इनमें अधिकांश पद्मासनसथ हैं, किन्तु कुछ कायोत्सर्ग मुद्रा में भी हैं। सभी गुफाओं में जिनों के अंकन के उपरान्त क्षेत्रपाल या अन्य शासनदेवों का अनिवार्यरूप से अंकन है। ये प्रायः खड़े हुए दर्शाये गये हैं।
चार
एक पाषाण गुफा में एक ही पंक्ति में कई तीर्थंकर उत्कीर्णित हैं, इनमें से अधिकतर के सर्पफधाटोप प्रीत होता है जिससे लगता है कि एकसाथ लगातार पार्श्वनाथ की कई प्रतिमाएँ बनाई गई हैं, किन्तु यहाँ मूर्तियां बनाते समय चट्टान में से प्रतिमा का शिर उभारने के लिए छत्र निकाला गया है, वह भी कभी कभी सर्पफण जैसा प्रतीत होता है।
इस गुफा के शिल्पांकन में एक जिनों के मध्य में एक देवकुलिका की तरह निर्मित करके उसमें चरणचिह्न हैं, इन चरणों के एक ओर उपदेशक या उपाध्याय जैसी आकृति है, दूसरी ओर पद्मासनस्थ जिनाकृति प्रतीत होती है और इस आकृति के पार्श्व में कोई प्रतीहारी या आराधक लघु आकर में दर्शाया गया है।
पाँच
एक चट्टान पर ऊपर नीचे पंक्तिबद्ध मूर्तियां शिल्पित है और मध्य में छह पंक्तियों का विशाल अभिलेख है। शिलालेख के नीचे और ऊपर का शिल्पांकन बहुत महत्वपूर्ण है। यहाँ जिनों की छवियाँ बनी हुई हैं साथ ही युग्म चरण चिह्न शिल्पित है।
उसके निकट एक आधार चबूतरा जैसा है, इस आधार पर एक लेटी हुई छबि प्रतीत होती है, उसके दोनों ओर एक-एक सेवक खड़ा है। इस अंकन से प्रतीत होता है कि किसी राजा ने अपने अन्तिम समय में जिन दीक्षा ग्रहण कर ली हो और उसकी समाधि होने पर यह अभिलेखयुक्त समाधि-स्थल बना हो। जिसके सन्निकट उसके आराध्यों और गुरुजनों, परिवारजनों का शिल्पन किया गया हो।
शिलालेख
खण्डार-तारागढ़ दुर्ग जैन सभ्यता का एक बड़ा गढ़ रहा है। यहाँ के शिलालेख अत्यंत महत्वपूर्ण और प्राचीन हैं। किन्तु अभी हमें किसी भी शिलालेख का पूर्ण पाठ उपलब्ध नहीं हो सका और न ही उसकी छाप या स्पष्ट चित्र, जिसे देखकर उसे पढ़ सकें। प्राप्त जानकारी के अनुसार यहाँ विक्रम संवत् 1230, 1539, 1568 और 1741 के शिलालेख मिलते हैं। यहां से 35 किलोमीटर दूर श्योपुर में विक्रम संवत् 1083 की जैन मूर्तियां मौजूद है जो यह सिद्ध करती है कि यह क्षेत्र काफी पुराना रहा है और जैन संस्कृति का बड़ा गढ़ रहा है।
1. ऊपर जिन बीस प्रतिमाओं युक्त चट्टान की निर्मितियों का परिचय दिया गया है उस गुफा की चट्टान पर एक सात पंक्तियों का बड़ा अभिलेख है। यह मुनिसुव्रत, नेमिनाथ, सुपार्श्वनाथ और पद्मप्रभ जीर्थंकरों की मूर्तियों के ऊपर की परिधि में आता है, किन्तु एक दरार के कारण इसकी चट्टान विभाजित है। इसका समय विक्रम संवत् 1230 पढ़ा गया है।
2. एक शिलालेख बड़ी प्रतिमाओं वाले मंदिर में है।
3. दो अभिलेख एक चट्टान की प्रतिमाओं के ऊपर हैं। ये दस दस पंक्तियों के हैं। अक्षर बड़े बड़े हैं, किन्तु पाषाण के क्षरण से अवाच्य हो गये हैं।
4. एक शिलालेख एक सपरिकर प्रतिमा के पादपीठ पर है। यह भी अवाच्य है।
5. एक चट्टान पर ऊपर नीचे पंक्तिबद्ध मूर्तियां शिल्पित है और मध्य में छह पंक्तियों का विशाल अभिलनेख है। यह अभिलेख कुछ स्पष्ट है। प्रयास करने पर इसका पाठ तैयार किया जा सकता है। ‘‘श्री सेयो संवत् 1568 .....महाराधिराज श्री राजसिंह देव..’’पढ़ने में आ रहा है।
संभव है कि इस खंडार दुर्ग की पहाड़ी पर अभी अनेक मूर्तियाँ, शिलालेख, अदृष्ट चट्टानों के गर्भ में हों। व्यवस्थित अन्वेषण की आवश्यकता है। इस पुरासंपदा हो देखने अवश्य जाना चाहिए। यहाँ की कुछ श्रमण निर्मितियाँ ऐसी हैं जो अन्यत्र कहीं नहीं देखीं गई हैं, इस कारण भी यह पूर्ण परिक्षेत्र अत्यंत महत्वपूर्ण है।
-डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’, इन्दौर
’’अनुप्रेक्षा’’
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