आख़री मंजिल

आना आखिर में यही था

मंजिल तेरी थीं शमशान

तो किस बात का अभिमान

गिरवी रखा तूने स्वाभिमान


इसका उसका सोच कर

जीना तू गया था भूल

मर मर कर जीता रहा

किसे न कुछ कभी कहाँ


तेरी ख्वाईशे दिल में दबा

किसी कोने तू रोता रहा

आज सांस बंद हो चुकी

उजड़ गईं तेरी ही बस्ती


गहरी निंद में हो तुम लेटे

तेरे अपने तुझे हे उठाये

नाटक करके बस रोने का

जीते ज़ी आंसू पोंछने ना

आये


कु, कविता चव्हाण, जलगांव, महाराष्ट्र