संतुष्टि

अरे भाई मुझे मत बांधो

अपने साहित्य के बंधन में,

मैं बंधना नहीं चाहता

गीत,कविता,पद,चौपाई,दोहा,

सोरठा,छंद के लपेटे में,

लिखता जरूर हूं पर

अपने अनुभव, अपनी आपबीती,

अपनों के दुख तकलीफ और

हम पर हुए जुल्म तथा अत्याचार,

लिखकर करता रहता हूं प्रतिकार,

अपनी गलती भी करता हूं स्वीकार,

मैं नहीं हूं कोई साहित्यकार,

लिखता हूं इसलिए क्योंकि

कुछ लोग कहते हैं कि

जिंदा रहने और दिखने के लिए दिखूं,

ताकि कल को आकलन हो हमारा

तब मेरी गिनती उन लोगों में

न गिना जाये जो खामोश थे,

अपने आप में मदहोश थे,

जिन्हें अपनों व समाज से

नहीं था कोई खास अनुराग,

सामाजिक मुद्दों पर जो

ले के बैठ जाता था बैराग,

या कोशिश करता था जो

मध्यम मार्ग अपनाने का,

जेब भी भरने व मामला भी सुलझाने का,

हां मेरी बातों पर कोई ताली नहीं देगा,

सामाजिकता पर मुझे गाली नहीं देगा,

अब आकलन जो भी करे लेकिन

लिखकर आत्मसंतुष्टि महसूस करता हूं।

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ छग