सुरभित वसुधा

मेघा प्रियवर जो बरसें तो मैं सस्मित सी बहकी बहकी

फिर ओढ़ चुनरिया धानी मैं अचला लगती महकी महकी


ज्यों छाए बदरा अम्बर में मैं तृषित चातकी सी बिफरूं

आहट जो अनल से अनिल जले मैं विस्मित सी नभ को देखूं 

आशान्वित अंजन नयन धरूं मृण्मयी भरे नदियां हल्की

मेघा प्रियवर जो बरसें तो मैं सस्मित सी बहकी बहकी।


मैं अचला अवधि वसुंधरा   घन अम्बर के राजा जैसे

मेरा तृषित हृदय तप रहा बदन करूं यतन जतन मिलना कैसे

संदेशदूत शीतल झोंका मन सुर सरिता सी ठुमकी

मेघा प्रियवर जो बरसें तो मैं सस्मित सी बहकी बहकी।


जब थिरक बूंद अंचरा पे गिरी अचला ने आंचल लहराया

आलिंगन प्रिय मन मोहपाश आल्हादित हो तन सहलाया 

स्निग्ध कौमुदी सी निखरी श्रंगारित होकर मैं चहकी

मेघा प्रियवर जो बरसें तो मैं सस्मित सी बहकी बहकी।


मेघा साजन से मिल सजनी अंतर्मन संतृप्त हुई वसुधा

जड़ जीवन गहन विजन वन भी बरसाते मेघा बूंद सुधा

हर्षित पुलकित प्रमुदित अलका सुरभित वसुधा सी गमकी।

मेघा प्रियवर जो बरसें तो मैं सस्मित सी बहकी बहकी।


मेघा प्रियवर जो बरसें तो मैं सस्मित सी बहकी बहकी

फिर ओढ़ चुनरिया धानी मैं अचला लगती महकी महकी।


डॉ0 अलका गुप्ता 'प्रियदर्शिनी'

लखनऊ उत्तर प्रदेश।