आरक्षण के पक्षधर भागवत

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख श्री मोहन भागवत ने आरक्षण का समर्थन करते हुए स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि उनका संगठन समाज के दलित व पिछड़े समाज के लोगों के लिए किये वैधानिक प्रावधान को जारी रखने की वकालत इस वजह से कर रहा है कि पिछले दो हजार वर्षों के दौरान हिन्दू समाज के कथित सवर्ण अथवा ऊंची जातियों के लोगों द्वारा दलितों पर किये गये अत्याचारों को उचित नहीं मानता है और पश्चाताप करके ऊंच-नीच को समाप्त करना चाहता है। 

हालांकि 2015 में श्री भागवत ने यह कहा था कि आरक्षण नीति की समीक्षा होनी चाहिए। संघ के ही सरकार्यवाह रहे श्री भैया जी जोशी ने काफी पहले यह भी कहा था कि आरक्षण तब तक जारी रहना चाहिए जब तक कि इसे पाने वाले समाज स्वयं ही यह न कह दें कि अब उन्हें आरक्षण की जरूरत नहीं है। श्री भागवत के अनुसार आरक्षण का सम्बन्ध सामाजिक व आर्थिक बराबरी के अलावा सम्मान से भी जुड़ा हुआ है। जाहिर है कि जहां गैर बराबरी होगी वहां निचले पायदान पर खड़े समाज का अपमान तो होगा ही। इसके बावजूद संघ पर यह आरोप लगता रहा है कि वह मूल रूप से जातिगत आरक्षण के विरुद्ध है। 

श्री भागवत ने प्रत्यक्ष रूप से इस बयान में यह भी स्वीकार कर लिया है कि हिन्दू समाज में जातिगत भेदभाव है और गरीबी का रिश्ता जातियों से जुड़ा हुआ है। वस्तुतः भारत की हकीकत भी यही है। एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि श्री भागवत का बयान दक्षिण भारत से वहां के राजनीतिज्ञों द्वारा सनातन धर्म के बारे में की गई तल्ख टिप्पणियों के बाद आया है। इससे सिद्ध होता है कि संघ प्रमुख सकल हिन्दू समाज की एकता के लिए भी आरक्षण को निर्विवाद बना देना चाहते हैं।

 मगर यह बयान पूर्णतः राजनैतिक है जिससे इसकी प्रतिध्वनियां भी राजनैतिक समाज से ही सुनाई पड़ेंगी। क्योंकि जनसंघ के जमाने से ही भाजपा आर्थिक आधार पर आरक्षण की पैरोकार रही है। अब यह काम भी पूरा हो चुका है क्योंकि मोदी सरकार ने कथित सवर्ण जातियों के गरीब लोगों को भी 10 प्रतिशत आरक्षण दे दिया है। एक मायने में देखा जाये तो हिन्दू समाज में अब आरक्षण से कोई वंचित ही नहीं रहा है। मगर असली सवाल तो सरकारी नौकरियों का है? 

सार्वजनिक कम्पनियों और वित्तीय संस्थाओं का जिस तरह निजीकरण पिछले 30 वर्षों में हुआ है वह थमने का नाम ही नहीं ले रहा है साथ ही सरकारी दफ्तरों से लेकर निजी संस्थानों तक में जिस प्रकार ठेके पर कर्मचारी रखने की प्रथा मजबूत होती जा रही है उसने सर्वाधिक कुप्रभाव आरक्षण के दायरे मे आने वाली जातियों के लोगों पर ही डाला है और उनकी आर्थिक सुरक्षा को छीन लिया है। यह बहुत गंभीर प्रश्न है जो सीधे भारत में सामान्य व्यक्ति की जर्जर होती आर्थिक क्षमता से बंधा है। 

यह सच है कि संविधान निर्माता बाबा साहेब भीमराव रामजी अम्बेडकर केवल हिन्दू समाज की कथित दलित जातियों व आदिवासियों के लिए ही आरक्षण की व्यवस्था प्रारम्भिक तौर केवल दस वर्ष के लिए ही करके गये थे और आगे के लिए फैसला सामाजिक परिस्थियों पर छोड़ कर गये थे परन्तु हम देख रहे हैं कि आज भी न केवल भारत में बल्कि विदेशों में जहां-जहां भारतीय जाकर बस रहे हैं। 

उन तक में जातिगत विद्वेष के आधार पर निचली समझी जाने वाली जातियों के लोगों के साथ भारत से ही वहां बसे लोग भेदभाव करते हैं जबकि दलित जाति के जो लोग विदेशों में बसे हैं वे भी उनके समान ही शिक्षित और आर्थिक क्षमता के लोग हैं। अतः जातिगत भेदभाव हमारे खून में ही घुल सा गया है क्योंकि विदेशों में तो भेदभाव भारत से गये लोग ही करते हैं। इसका सबसे ज्वलन्त उदाहरण अमेरिका के कैलिफोर्निया राज्य में जाति आधार पर भेदभाव के खिलाफ बनाया गया कानून है। 

इससे यह भी सिद्ध होता है कि आधुनिक अमेरिकी व यूरोपीय समाज में रहने के बावजूद भारतीयों की मानसिकता में बदलाव नहीं आता है और वे अपने ही बीच के लोगों में से उनकी जाति ढूंढने लगते हैं। भारत में तो जातियों की जड़ें इतनी गहरी हैं कि लोग अपना मजहब तक बदलने के बावजूद अपनी जाति नहीं छोड़ते हैं। भारत और पाकिस्तान में राजपूत, जाट, गुर्जर, खत्री व पंडित तक मुसलमान नागरिक मिल जायेंगे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो त्यागी तक मुसलमान होते हैं। 

राजस्थान में चैहान मुसलमान खूब मिलते हैं। मुस्लिम समाज में भी दलित जातियां मिल जायेंगी, जिनमं खटीक, सक्के, अंसार जुलाहे, नाई, दर्जी आदि हैं। इन्हें ही पसमान्दा मुसलमान कहा जाता है जो अपने ‘अशराफ’ कहे जाने वाले समाज के लोगों की चाकरी करते मिलेंगे। हालांकि अब इसमें थोड़ा परिवर्तन भी आया है। मुस्लिम समाज के शिक्षा जगत के कुलगुरु समझे जाने वाले सर सैयद अहमद खां तो इन्ही पसमान्दा मुसलमानों की आधुनिक पढ़ाई-लिखाई के सख्त खिलाफ थे। 

वह अपने ही पसमान्दा मुस्लिम समाज के किसी व्यक्ति को कलैक्टर या पुलिस कप्तान अथवा दारोगा तक देखने के विरुद्ध थे । अतः जातियों के आधार पर न केवल हिन्दू समाज बल्कि मुस्लिम समाज भी अभिशप्त है। इसी वजह से ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री चर्चिल ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अमेरिका द्वारा जापान पर परमाणु बम फैंके जाने पर कहा था कि हम तो अमेरिकियों को बहुत अक्लमन्द समझते थे मगर उन्होंने तो जापान को नष्ट करने के लिए परमाणु बम ही गिरा डाला। 

यदि वह बुद्धिमान होते भारत से कुछ ऊंची जाति ( ब्राह्मण समाज सहित) के लोगों को  जापान में बसा देते। कुछ सालों बाद जापान स्वयं ही नष्ट हो जाता। अतः संघ प्रमुख ने वास्तविकता को परख कर ही अपना बयान दिया है।