जी-20 के बहुत ही भव्य दो दिवसीय सम्मेलन का रविवार को समापन हुआ जिसके दौरान अनेक अच्छी-अच्छी बातें कही गयीं। वसुधैव कुटुम्बकम से लेकर महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने, जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी चिंताओं से लेकर ग्लोबल साऊथ पर काम करने के निश्चयों के साथ भागीदार हुए देशों के राष्ट्राध्यक्ष लौट तो गये हैं परन्तु कुछ सवाल भी लेकर गये हैं।
इनमें सम्भवतः सबसे प्रमुख यही होगा कि विश्व का नेतृत्व करने का आकांक्षी भारत क्या इन अच्छी-अच्छी बातों का स्वयं अपने देश में अमल कर रहा है। बेशक, सारे मुद्दों का संबंध देश की आंतरिक नीति व प्रणाली से नहीं है लेकिन एक अच्छे समाज के जो अनिवार्य गुण हैं क्या उन्हें पाने का प्रयास यह महादेश कर रहा है? दिल पर हाथ रखकर अगर जवाब टटोला जाये तो शायद वहां बहुत बड़ा ना ही मिलेगा। खासकर, भारत को कई तरीकों से और अनेक अवसरों पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा लोकतंत्र की जननी कहा जाना कितना विश्वसनीय रह गया है, यह भी इस मौके पर देखा जाना चाहिये।
वसुधैव कुटुम्बकम पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का काफी जोर रहता है पर उसका अमलीकरण पहले देश के भीतर तो हो। भारतीय जनता पार्टी के शासन काल में जहां एक ओर वर्णवाद बढ़ा है वहीं साम्प्रदायिकता में भी बेतहाशा इजाफा हुआ है। अगड़े-पिछड़ों का झगड़ा जो मोदी राज में देखा गया है वह कम से कम आजाद भारत में तो कभी भी नहीं देखा गया था।
बेशक, भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था के कारण बड़ा विभाजन पहले से है जहां कथित ऊंची-निचली जातियों के बीच टकराव होते रहे हैं लेकिन सरकारों ने कभी उसे बढ़ावा नहीं दिया व उन्हें खत्म करती आई हैं। विश्व देख रहा है कि भारत की सरकार में सत्तारुढ़ पार्टी इन्हें बढ़ावा देती है तथा संरक्षित भी करती है। जो संकीर्णता इस दौरान भारत देख रहा है वह अभूतपूर्व है।
दुनिया का ऐसे भारत से परिचय नहीं था। बहुत शोर-शराबा किये बगैर भारत की इसलिये वैश्विक स्वीकार्यता थी क्योंकि उसका केन्द्रीय भाव मानवीय संवेदना थी। मौजूदा भारत संकीर्ण, है क्रूर भी- ऐसा समाज जो बहुत थोड़े से लोगों का है। सदियों से रहते आये अल्पसंख्यक, जिन्होंने एक दूजे का सुख-दुख में साथ निभाया, स्वतंत्रता की लड़ाई मिलकर लड़ी, आजादी पाने की प्रक्रिया से उपजे दर्द को एक सा झेला और संघर्ष करते हुए जो हासिल किया उसका वितरण बगैर भेदभाव के आपस में किया।
अचानक एक वर्ग बाहरी हो गया जिन्हें यहां से चले जाना चाहिये। वे पिछले 9 वर्षों से देश की तमाम समस्याओं के मूल कारण बने हुए हैं और आये दिन उनसे देशभक्ति के प्रमाणपत्र मांगे जाते हैं। कष्टों में पड़ी मानवीयता को बरसों से सहानुभूति और सहायता देने वाला भारत केवल मोदी एवं उनकी पार्टी के वोटरों का होकर रह गया है। अपने भीतर के समाज को ही उदार न बना सकने वाला देश आखिर सारी दुनिया को कैसे अपने आगोश में ले सकता है?
भारत में बढ़ती जातीयता व धार्मिक विद्वेष की हकीकत दुनिया को ज्ञात हो चुकी है। मणिपुर, नूंह, जयपुर-मुंबई एक्सप्रेस में हुए खूंरेज हादसे तो हाल के हैं, पिछला लगभग एक दशक भारत की ऐसी कई कहानियों का काल रहा है जो दुनिया भर में गई हैं। हास्यास्पद यह है कि इस मौके पर लिखे अपने लेख में वसुधैव कुटुम्बकम की बात करने वाले प्रधानमंत्री अपने मंत्रियों को सनातनी वाला मुद्दा गरमाये रखने की अपील करते हैं। पिछले कुछ समय से देश को श्मदर ऑफ डेमोक्रेसीश् साबित करने पर आमादा पीएम शायद इस बात को नहीं जानते कि दुनिया का सबसे बड़े बड़ा लोकतंत्र धीरे-धीरे दम तोड़ रहा है।
समतामूलक एवं न्यायपूर्ण समाज क्षरित हो गया है। बन्धुत्व और धर्मनिरपेक्षता लापता हो गई है। आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक तीनों ही स्तरों पर गैर बराबरी चरम पर हैय और इसके लिये जिम्मेदार सरकार ही है। इसके पीछे वह विचारधारा है जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा प्रवर्तित एवं संपोषित है। सुनियोजित तरीके से अमीरी-गरीबी की खाई को बढ़ाया गया है।
समाज बदहाल है और विभाजित भी। राजनैतिक वर्चस्व के लिये वे सारे हथकण्डे अपनाये जाते हैं जो वास्तविक मायनों में जनतंत्र में भरोसा रखने वाली कोई सरकार नहीं अपना सकती। अगर इन उदात्त बातों को देश में क्रियान्वित करने की कोशिशें मोदी सरकार नहीं करती तो यही माना जायेगा कि जनता के टैक्स के पैसों से आयोजित इस विलासितापूर्ण आयोजन का मकसद केवल सियासी है।
जिस वसुधैव कुटुम्बकम् के सिद्धांत का बारंबार उल्लेख होता आया है, यदि उसके अमल की अपने देश में ही मंशा नहीं है तो यही माना जायेगा कि यह बेहद खर्चीली कवायद सिर्फ इसलिये की गई है कि इससे ब्रांड मोदी को और दमकाया जाये ताकि उसका उपयोग केन्द्र सरकार की आगामी चुनावों में कर सके। ऐसा नहीं कि भारत में पहले कोई बड़ा अंतरराष्ट्रीय आयोजन न हुआ हो। इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहने के दौरान हुए गुट निरपेक्ष देशों के सम्मेलन में भारत का कूटनयिक दबदबा बुलंदियों पर था।
आपस में टकराते दो देश भी उसके एक जैसे कायल थे। अपनी आंतरिक कमजोरियों के बावजूद भारत की ताकत अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बड़े रूप में पहचानी जाती थी। मौजूदा वैदेशिक नीति केवल बड़े देशों से हथियारों व कबाड़ बनती टेक्नालॉजी की खरीदी, मेहमानों को झप्पी से गले लगना, उन्हें सोने-चांदी के बर्तनों में खाना खिलाने तक रह गई है।
भारत की बातों को दुनिया नतमस्तक होकर सुने, इसके लिये जरूरी है कि वह बड़े देशों का पिछलग्गू न बने। इन महाशक्तियों के समकक्ष उसे बैठना है तो वह गुट निरपेक्ष आंदोलन को फिर से खड़ा करे। पहले अपने नागरिकों को सशक्त बनाये। गोदी मीडिया की अतिरंजित हेडलाइन और चकाचौंध आयोजन को ही सफलता का पैमाना मानना शायद खुद को कमजोर करना है।