अपनों का रहूंगा

हां बाहर हो गया हूं

उनकी मित्रता सूची से,

अब नहीं बन पाता मेरी तस्वीर

उनके हाथों में पड़ी कूची से,

अब वो पैसे कमाने लगा है,

रईसों के साथ आने जाने लगा है,

अब वो चिंतित नहीं रहता

अपने भविष्य और अपने लोगों के लिए,

उनका मानना है उनको

ऊपर वाले ने बहुत कुछ है दिए,

तब पुरखों को और अब न मुझको

कुछ दिया नहीं ऊपर वाले ने,

नफरत और अत्याचार सहते सहते

साथ छोड़ा था निवाले ने,

अब भी मैं चल रहा हूं अपने समाज के लिए,

मिटने को तैयार हूं

बाबा साहब की इक आवाज के लिए,

रास्ते अलग होने के बाद भी

तूझे मानता हूं अपना मित्र,

संवैधानिक राज लक्ष्य है

नहीं बदल सकता अपना चरित्र,

मित्र था, मित्र हूं, मित्र ही रहूंगा,

भले फेर ले आंखें वो

अपनों का था, हूं और अपनों का रहूंगा।

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ छ ग