चुंबक

वो खींच लेता है अपनी ओर

जैसे खींचता है लोहे को चुम्बक

और हम चिपक जाते हैं लोहे के जैसा,

फिर खूब लुटाते हैं कीमती धातु और पैसा,

वो चुम्बक है आस्था का, अदृश्य का,

नजर न आने वाले दृश्य का,

और मान लेते हैं किसी का भी कहा

नजरें फिरा ढूंढते रहते हैं

छान मारते हैं स्थलदृश्य का,

लगे रहते हैं छोड़कर

तर्क-वितर्क, ज्ञान-विज्ञान और प्रश्न,

नहीं हो पाता दीदार किसी सदृश्य का,

एक झूठी आस लिए फिरते हैं

जो नैराश्य में जाने तो नहीं देती,

और कुछ हाथ आने भी नहीं देती,

बस गाये जा रहे होते हैं

अनजाने-अनदेखे के गीत

छोड़कर किया जा सकने वाला कर्म,

हम बेबस,गरीब और सताये हुए

नहीं समझ पाते औरों का स्वार्थी मर्म।

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ छ ग