दरकते पहाड़

हिमालय पर्वत शृंखलाओं की वहन क्षमता को आंकने के लिये सुप्रीम कोर्ट की पहल पर पैनल बनाया जाना स्वागत योग्य कदम है। मगर सवाल है कि जो काम केंद्र व राज्य सरकारों को समय रहते करने चाहिए थे, उसके लिये अदालतों को आदेश देने की आवश्यकता क्यों पड़ रही है? 

क्यों हमारी कार्यपालिका व व्यवस्थापिका इस दिशा में पहल नहीं करती? क्यों हमारा तंत्र ‘आग लगने पर कुआं खोदने’ की मानसिकता से नहीं उबर पाता? अच्छी बात है कि विशेषज्ञों द्वारा देश के तेरह राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों के पर्वतीय इलाकों का मूल्यांकन किया जायेगा। जो न केवल हिल स्टेशनों की जनसंख्या का दबाव वहन करने की क्षमता का आकलन करेगा बल्कि निर्माण कार्यों के लिये एक मास्टर प्लान के बारे में भी सोचेगा।

 ताकि इस बात का निर्धारण हो सके कि पारिस्थितिकीय-तंत्र को हानि पहुंचाए बिना कितनी अधिकतम आबादी को रहने को अनुमति दी जाये। हाल के वर्षों में देश में जिस तरह मध्यम वर्ग का उदय हुआ है, देश के पुराने हिल स्टेशन जनसंख्या के बोझ से चरमराने लगे हैं। इससे सफाई और पेयजल का संकट भी बढ़ा है। इस पर्यटन संस्कृति ने धनाढ्य वर्ग में, इन इलाकों में होटल व मकान बनाने को स्टेटस सिंबल जैसा बना दिया है। कमोबेश यही स्थिति सरकारी निर्माण की भी है।

 हालांकि पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने शीर्ष अदालत में दाखिल अपने हलफनामे में कहा है कि संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार भूमि व विकास गतिविधियों का संरक्षण राज्य का विषय है। लेकिन इसके बावजूद पर्यावरण व राष्ट्रीय हितों के लिये केंद्रीय एजेंसियों की सचेतक भूमिका होनी चाहिए। निस्संदेह, पहाड़ व प्रकृति मनुष्य को सुकून देती है, लेकिन उसके मूल स्वरूप को बनाये रखना भी हमारी प्राथमिक जिम्मेदारी है। 

जिसके नियमन के लिये राज्य सरकार व स्थानीय प्रशासन को भी सजगता दिखानी होगी। उसकी सक्रियता बिना किसी आपदा का इंतजार किये होनी चाहिए। साथ ही दूरगामी लक्ष्यों को लेकर योजनाएं बननी चाहिए। निस्संदेह, हमने जीवन में जल्दी-जल्दी सब कुछ हासिल करने के मोह में उन परंपरागत तौर-तरीकों को नजरअंदाज किया, जो पहाड़ों में सड़क बनाने में इस्तेमाल किये जाते थे। जिसमें ध्यान रखा जाता था कि पहाड़ के आधार को क्षति न पहुंचे। 

लेकिन अब फोर-लेन हाईवे बनाने के प्रलोभन में ऐसे तमाम उपायों को नजरअंदाज किया गया। अपेक्षाकृत नये हिमालयी पहाड़ों पर बसे हिमाचल व उत्तराखंड के पहाड़ फोर-लेन सड़कों का दबाव सहन करने को तैयार नहीं हैं। पहले सड़कें लंबे घुमाव के साथ तैयार की जाती ताकि पहाड़ के अस्तित्व को खतरा न पहुंचे। लेकिन अब दावे किये जा रहे हैं कि शिमला-मनाली कुछ ही घंटों में! मगर ये घंटे कम करने के उपक्रम की कीमत स्थानीय लोगों व पारिस्थितिकीय तंत्र को चुकानी पड़ रही है। 

पहाड़ों को काटने के साथ पेड़ों का कटान तेजी से हुआ है। ये पेड़ ही पहाड़ों की ऊपरी परत पर सुरक्षा कवच का काम करके भू-स्खलन को रोकते थे। सबसे बड़ी चिंता की बात यह भी है कि अवैज्ञानिक तरीकों से सड़कों के लिये कटान से पहाड़ों के भीतर के वाटर चैनलों का प्राकृतिक प्रवाह भी बाधित होता है। जो न केवल जमीन के कटाव को बढ़ावा देता है बल्कि नयी आपदाओं की जमीन भी तैयार करता है। इतना ही नहीं सड़कों को चैड़ा करने के नाम पर कई जगह ब्लास्ट तक का सहारा भी लिया जाता है, जो पहाड़ों का आधार कमजोर करता है। 

दरअसल, अतीत में हमारे पूर्वज मकानों का निर्माण पहाड़ों की तलहटी और समतल इलाकों में किया करते थे। लेकिन हाल के वर्षों में खड़ी चढ़ाई वाले पहाड़ों को काटकर बहुमंजिला इमारतों व होटलों का निर्माण अंधाधुंध हुआ है। इस बोझ को सहन न कर सकने वाले पहाड़ों में कालांतर भूस्खलन की घटनाएं बढ़ी हैं। हमें याद रखना चाहिए कि भवन निर्माण हो या सड़कों का निर्माण, पहाड़ों को कोई शार्टकट रास्ता स्वीकार नहीं है।

 उसकी कीमत हमें तबाही के रूप में चुकानी होगी। वहीं दूसरी ओर पहाड़ों पर भारी-भरकम व्यावसायिक विज्ञापनों के लिए होर्डिंग लगाने व रंगों की पुताई से बचाना चाहिए, जिससे वे बेहतर ढंग से सांस लेते हुए अपने मूल सौंदर्य को बरकरार रख सकें।