“अरे फंड का तो सोचो साहब । वादे चांद तक किए हैं और रुपया शाम तक के लिए भी नहीं है। ऐसे-कैसे चलेगा। पीने वालों को कभी नाराजड नहीं किया जाता। उनके लिए हमें रेड कार्पेट बिछाकर स्वागत करना चाहिए। पीने की व्यवस्था नहीं की जाएगी तो सरकार गिर जाएगी। आज अस्पताल और स्कूल कोई नहीं पूछता है। मधुपान की दुकान न हो तो गड़बड़ झाला हो जाएगा! चिकित्सा और शिक्षा की जरूरत तभी पड़ती है जब पीने वाले होंगे। उनके न होने पर सारी व्यवस्थाएँ ठप्प पड़ जाती हैं। मतदाता को बॉँटने के लिए रोकड़ा चाहिए होता है। बिना रोकड़ा के हमें मत देने वाला कौन है। सब मतलब के सथी हैं!!” सड़ियल मंत्री ने राजा से कहा।
हुआ कुछ ख़ास नहीं । शराबखानों को लेकर भड़कने वालों की कुछ आपत्ति थी और राजा ने दिल पे ले लिया फैसला कि अब मधुनगर के मधुशालाएँ बंद । कहते हैं कि लोकतंत्र है लेकिन न किसी पीने वाले से पूछा न पिलाने वाले से । यह प्राकृतिक न्याय नहीं है । बात को समझने की जरुरत है । चुनाव आ रहे हैं, हमारा सबसे बड़ा मनप्रिय त्यौहार । जिसमें छोटा-बड़ा, आमीर-गरीब, रजा-रंक, मरियल सड़ियल सब एकरंग हो जाते हैं ।
नो डिवाइड एंड रूल । सब एक, यानी देश मस्त मजबूत । सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि नेता लोग सुनते नहीं हैं । माना कि बोलना-चीखना-चिल्लाना टीवी मिडिया और नेतों का काम है लेकिन सुनना समझना भी तो जरुरी है । एक चुनावी कवि कह गए हैं “जात-पात में न बाँट, केवल वोटरों को चाट” । जहाँ चुनाव हो वह तो हमारी संस्कृति और उत्सव का बड़ा केंद्र हुआ न । इसे बंद करना सीधे सीधे संस्कृति पर हमला क्यों नहीं माना जाना चाहिए ?! व्यावहारिक रूप से देखें तो अब चुनाव को गुलजार करने कहाँ जायेंगे ?!
राजा जानते हैं और मानते भी है कि मयखाने राज्य की राजस्व सुविधा हैं । तो क्या ये आत्मघाती फैसला नहीं कहा जायेगा ! शराबी अपनी खून पसीने की कमाई का अधिकांश पैसा आपको देता है, अपने बच्चों के हिस्से का दूध-दवाई सरकार की सेहत के लिए नजर कर देता है ... और मौका आने पर वोट भी देता है अलग से । देखा जाये तो सरकार का सगा पीने वालों से बढ़ कर कौन ! चुनाव के पहले बंदर छाप घटिया दारू बंटवाई जाती है ! लेकिन लोकतंत्र की खातिर सारे सड़ियल कुर्सी-बटन दाब देते हैं । इस दरियादिली के लिए क्या कहें !!
राजा ने समझाया – “देखो सड़ियल जी, हम समझते हैं आपकी दुविधा । दारू भी उतनी ही बुरी है जितनी राजनीति । न तुम छोड़ सकते हो न हम । जितने गाली-जूते तुम्हें पड़ते हैं उतने ही हमें भी । तुम्हारा हमारा वोट और चोट वाला अटूट रिश्ता है, तुम मोटी चमड़ी हम भी सुपर मोटी चमड़ी । मेरे भाई, मेरे हमदम, मेरे दोस्त थोड़ा भगवान से भी डर यार । घर जा के पीने की आदत डाल बाकी कहीं बैठने की जगह नहीं मिलेगी ।“ “मतलब ये कि अपने घर को मधुशाला बना लें क्या !? कल को बीबी-बच्चे पीने लग जाएँगे तो उसका खर्चा कौन देगा? महंगाई इत्ती हो-री हे कि चुनाव पे क्या खायेंगे यह समझ में नहीं आ रहा है।”
“सब समझते हैं। लेकिन हमारी मजबूरी भी तो समझो, हमने तुम्हारे खाने का इंतजाम किया है पर पीने का नहीं हो सकेगा । आखिर हमें करदाताओं से भी वोट लेने पड़ते हैं । माफ़ करो सड़ियल मंत्री ।“ राजा बोले । सड़ियल मंत्री को ताव आ गया । बोले – “आप तो कमाल करते हैं राजा जी! इतना सीधा मत बनिए। भूल क्यों रहे हैं कि यही आपके पास होने का फार्मूला है । अगर मधुशाला को ले-के किसी को दिक्कत हो रही है, तो मधुशाला का नाम बदलकर अमृतशाला कर दिया जाए। केबिनेट में प्रस्ताव लाइए और मधुशालाओं का नाम बदल-के अमृतशाला कर दीजिए। न आप जीते, न हम हारे । आप भी खुश हम भी खुश ।“
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, प्रसिद्ध नवयुवा व्यंग्यकार