सघन विजन कानन में,
स्मृति तृषा से हूँ अकुलाती,
सूख गये ये दृगजल मेरे,
अंजन मसि से लिखूँ मैं पाती।
स्निग्ध कौमुदी की छाया भी,
मुझ विरहन को है जलाती।
तेरे दरस को विकल नयन,
हूँ तेरी जोगन तेरी थाती।
तोड़ दूँ मैं यह क्षितिज,
जो तू मुझको उस पार मिले।
विरह की यह प्राचीर अब तो,
तनिक न मुझको है सुहाती।
तेरी निःसीमता मुझपर ही
क्यों सीमित हो जाती है?
अपरिमित तेरे वृत्त की बस
केंद्र बिंदु मैं बन जाती।
डॉ. रीमा सिन्हा (लखनऊ )