किसी भी सभ्य व्यक्ति को भीतर तक हिलाकर रख देने वाले मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश) के एक गांव के स्कूल के वायरल वीडियो ने बतला दिया है कि परस्पर घृणा का जहर बच्चों की नसों में तक दौड़ रहा है। इसमें एक निजी स्कूल की पांचवी कक्षा के बच्चे शिक्षिका के निर्देश पर एक मुस्लिम बच्चे को थप्पड़ मार रहे हैं। उस निरीह बच्चे की गलती मामूली सी रही होगी। शायद होमवर्क पूरा न करने या छोटी-मोटी शरारत की।
जब बच्चे को उसके अन्य सहपाठी एक-एक कर थप्पड़ जड़ रहे थे तो वह शिक्षिका मुस्लिमों के खिलाफ सतत उवाच कर रही थी। वह बच्चों को और जोर से मारने के लिये भी उकसा रही थी। एक बच्चे को उसकी धार्मिक पहचान के आधार पर पिटवाना यह बताने के लिये काफी है कि जहर की खेती का रकबा लगातार बढ़ रहा है और हमारे राजनीतिज्ञ इतनी फसल ले लेना चाहते हैं कि आने वाली पीढ़ियों तक को कमी न रहे।
रूह कांप जायेगी यह सोचकर कि जिस बच्चे ने मार खाई और जो बच्चे अपने अल्पसंख्यक मित्र को सहर्ष पीट रहे हैं, दोनों किस मानसिकता के साथ बड़े होंगे और कैसा समाज रचेंगे। अगर इस नफरत के स्रोत और जिस रास्ते से चलकर वह पीटने वाले बच्चों के दिलो-दिमाग में जा समाई है, उसकी शिनाख्त करें तो कुछ बातें साफ हैं।
पहली यह कि गैर बराबरी पर आधारित हमारी सामाजिक संरचना में एक-दूसरे के लिये नैसर्गिक आदर व सहज प्रेम का अभाव तो रहा है जो कहीं-कहीं तीव्र घृणा के स्तर तक पहुंच जाता है, तो भी देश के कुछ धर्म प्रवर्तकों, बड़े चिंतकों, दार्शनिकों, समाज सुधारकों, साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों और राजनैतिक नेतृत्व करने वाले लोगों ने इसका असर अधिक नहीं होने दिया था।
तमाम तरह की वैचारिक विभिन्नताओं और विविधतापूर्ण जीवन शैलियों के बीच बने-बढ़े समाज ने मान्यताओं व नजरियों के अंतर के साथ जीना सीख लिया था। यहां तक कि हिन्दू धर्म से एकदम अलग तरह के धार्मिक विश्वासों को लेकर आये ईसाइयों, मुसलमानों, यहूदियों, पारसियों आदि के साथ भी यहां के लोग थोड़ी बहुत खटपट के साथ जीते हुए समावेशी समाज का ताना-बाना बचाये व बनाये रखने में कामयाब रहे।
इसका सबसे बड़ा कारण यही था कि बहुतायत वाले इसी हिन्दू धर्म से बौद्ध, जैन एवं सिख धर्म निकले, अनेक तरह के सम्प्रदाय बने और कई तरह की उपासना पद्धतियां निर्मित हुईंय पर सभी की आपस में निभती रही।इसी बहुरंगी समाज ने भारतीय कुनबे को शक्तिशाली बनाया जो जीवन के सभी क्षेत्रों में आगे बढ़ता रहा, फिर वह चाहे वे कलाएं हों या साहित्य, विज्ञान हो अथवा दर्शन।
भारत में विविधता के बीच जो एकता थी, उसने फिरंगियों के खिलाफ स्वतंत्रता पाने के पहले संग्राम को मिल-जुलकर लड़ने की प्रेरणा दी। इसकी नाकामी के बावजूद एक संगठित समाज फिर से बना जिसने अपनी आजादी की लड़ाई के लिये खुद को नये सिरे से तैयार किया।
महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता की राह पर देश के प्रमुख सम्प्रदायों- हिन्दुओं एवं मुसलमानों को साथ लिया लेकिन दोनों समुदायों के बीच मौजूद फिरकापरस्त तत्वों ने परस्पर वैमनस्यता को हवा दे दी। मुस्लिम लीग ने अपने लिये अलग देश बनाया और भारत में हिन्दू महासभा व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने देश के बंटवारे के बाद भी साम्प्रदायिकता नहीं छोड़ी।
प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस खाई को खत्म करने के लिये विकास व खुशहाली को हथियार बनाया। जो कट्टर तत्व सत्ता से दूर रहे वे उस तक पहुंचने के लिये घृणा के मार्ग पर चलते रहे और यह भी मानते रहे कि अलग धर्म के अनुयायियों के खिलाफ हिंसा अपनाने में कोई बुराई नहीं। इसकी प्रेरणा भी उन्हें उसी धर्म से मिलती रही जिसे कतिपय अपरिहार्य कारणों से मध्य युग में युद्ध का सहारा लेना पड़ा था।
बहरहाल, सभी धर्मों की कट्टरता को पूर्ववर्ती सरकारों ने दबाये रखा। बेशक, कई प्रकरणों में उन्हें सफलता नहीं मिली पर नफरत व हिंसा का समर्थन किसी भी सत्ता ने कभी नहीं किया। यह हाल का फिनोमिना है। आरएसएस की राजनैतिक विंग भारतीय जनता पार्टी की ताकत बढ़ने के साथ यह भावना बढ़ी, साथ ही साम्प्रदायिक हिंसा व घृणा आधारित घटनाएं भी।
1991 में अयोध्या की बाबरी मस्जिद को ढहाया गया और उसके कारण भाजपा ताकतवर होती चली गई, तो इस फार्मूले को आगे भी अपनाये जाने हेतु धर्म राजनैतिक विमर्श के केन्द्र में आ गया। जब धर्म आ ही गया तो साम्प्रदायिक सोच पर आधारित सियासत का बोलबाला हुआ।
जिसके दो पाये घृणा व हिंसा ही हैं। 2002 में गुजरात का गोधरा कांड अंततरू भाजपा को नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में 2014 में पहली तथा 2019 में दूसरी बार सत्ता के शीर्ष पर बिठाने में कामयाब रहा। अब यही देश का नया राजनैतिक विमर्श है। तमाम तरह की नीतियों व योजनाओं की नाकामयाबी के बाद भी सत्ता में बने रहने के लिये सामाजिक ध्रुवीकरण भाजपा के लिये अपरिहार्य हो गया है।
उसके पिछले करीब 9 वर्षों के कार्यकाल में हिन्दू-मुस्लिम, भारत-पाकिस्तान, श्मशान-कब्रिस्तान, नमाज बनाम हनुमान चालीसा, कपड़ों से पहचान- जैसे मुद्दे सिर चढ़कर बोल रहे हैं। मुजफ्फरनगर, कैराना या दिल्ली के दंगे हों अथवा हाल में हुई मणिपुर, नूंह की वारदातें या फिर जयपुर-मुम्बई एक्सप्रेस में मुस्लिमों को चुन-चुनकर मारना- सारी उसी सामाजिक-राजनैतिक विमर्श की किश्तें हैं।
नेता हो या प्रजा, महिलाएं हों या पुरुष, बच्चे हों या शिक्षक- सत्ता के साथ सभी ने इस संस्कृति को आत्मसात कर लिया है। हर कोई यही होता देख रहे हैं। मुजफ्फरनगर की इस घटना से सावधान होने की जरूरत है क्योंकि पानी अब खतरे के निशान से ऊपर बहने लगा है।