सुनों हिमालय..
क्यों सिर्फ दृढ़ता ही देखी गई तुम्हारी
नापी गई सिर्फ गहराई ही
तुम्हारी जड़ों की,
क्यों अब तक की सभ्यताएं तलाशती रहीं
तुम्हारी नींव के अडिग पत्थर..
पर क्या किसी ने भी सुधि ली
तुम्हारे नितांत अकेलेपन की
नहीं न !!
सुनों हिमालय..
एकांत से ज्यादा कुछ भी क्रियाशील नहीं है ,
धरती की नीयति पर स्थित
तुमने अकेले ही बदल दिया सभी मौसमों को,
ह्रदय में धारण किए रखा ग्लेशियरों को
ताकि बची रहे धरा
विरह तपन से ,
शून्यता की अनगिनत सीढियां चढ़ते-चढ़ते
तुमने उस थके मनुष्य को
जगह दी
अपने ब्रह्मकमल में !!
सुनों हिमालय..
तुम हस्ताक्षर हो विराटता के
जो कि व्याप्त रहा कण-कण में ,
सदियों से.. सदियों तक..
अचल रहकर भी तुमने गतियां दी मनुष्यता को
ताकि पनपती रहें सभ्यताएं अनवरत !!
नमिता गुप्ता "मनसी"
मेरठ, उत्तर प्रदेश