मोदी-जिनपिंग भेंट पर निगाहें

दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग में मंगलवार को शुरू होने जा रही 15वीं शिखर वार्ता पर चाहे सबकी नजरें विभिन्न कूटनीतिक एवं व्यवसायिक कारणों से टिकी हों पर आम भारतीयों की उत्सुकता इस सम्मेलन को लेकर इसलिये है क्योंकि वे देखना चाहते हैं कि भारत और चीन के बीच कई तरह के विवादों और मुद्दों को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से बातचीत करते हैं या नहीं। चूंकि इस बात की सम्भावना कूटनयिक हलकों में भी जतलाई गई है कि दोनों राष्ट्राध्यक्षों के बीच मुलाकात की सम्भावना है, तो देश की यह आशा स्वाभाविक है कि मोदी भारत के हितों से जुड़े मसलों को कड़ाई से उठायेंगे। 

भारत में चीन की घुसपैठ और कुछ स्थानों पर हो चुकी झड़पों को लेकर मोदी ने देश के भीतर कभी स्पष्ट बात नहीं की, सिवाय यह कहने के कि पड़ोसी देश की ओर से कोई घुसपैठ नहीं हुई है। संसद के भीतर व बाहर एकाध बयानों के अलावा भारत सरकार या मोदी ने कभी भी इस बात को स्वीकार नहीं किया कि चीन देश की सीमा के भीतर घुस आया है। मोदी की अनेक मौकों पर चीनी राष्ट्रपति से मुलाकात तो हुई है लेकिन मोदी ने यह मसला कभी भी नहीं उठाया। 

देखना यह होगा कि अब भी मोदी लोगों को निराश करते हैं या चीन को कड़े लफ्जों में भारत की सम्प्रभुता का सम्मान करने की नसीहत देते हैं। वैसे तो पश्चिमी दुनिया के प्रभाव से अलग 5 बड़े देशों- ब्राजील, रूस, इंडिया, चीन एवं दक्षिण अफ्रीका (ब्रिक्स) द्वारा परस्पर सहयोग व विकास के उद्देश्यों को लेकर वर्ष 2010 में गठित इस संगठन में शामिल होने के लिये 60 देश इच्छुक हैं परन्तु यह तय नहीं हुआ है कि देशों के आवेदन को स्वीकार करने के पैमाने क्या होने चाहिये। 

आधिकारिक सूत्रों के अनुसार जिन देशों को शामिल करने का निर्णय लिया जायेगा वह परस्पर सहमति से होगा। अब तक तो ईरान को इसमें शामिल करने के लिए रूस एवं चीन ने समर्थन जताया है। इन देशों के प्रतिनिधियों को सम्मेलन में शामिल होने के लिये आमंत्रित भी किया गया है परन्तु सदस्यता किसे दी जाती है, यह देखना होगा। 

यहां भारत को सतर्क रहने की जरूरत है क्योंकि नयी सदस्यता से कुछ देश अतिरिक्त ताकतवर हो सकते हैं जबकि भारत का प्रयास इस संगठन को हर तरह की खेमेबाजी से बचाने का होना चाहिये। ब्रिक्स पश्चिम का विरोधी मोर्चा नहीं है- यह साबित करने की प्रमुख जिम्मेदारी भारत की ही है क्योंकि अगर यह धारणा बनती है तो मुख्य खामियाजा भारत को ही भुगतना पड़ेगा। देश की स्थिति ऐसी नहीं है कि वह पश्चिम का रोष झेल सके। भारत की वैदेशिक नीति के मूल में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू प्रदत्त गुट निरपेक्षता का सिद्धांत है जो उसकी समग्र विदेश नीति में झलकता रहा है। 

मोदी इस विरासत को मजबूरी में ढो रहे हैं क्योंकि उनके पास कोई विकल्प नहीं है। चीन ब्रिक्स के विस्तार पर बहुत जोर दे रहा है। भारत को इससे सावधान रहना होगा क्योंकि चीन के प्रयासों से शामिल होने वाले देश उसके कहे में ज्यादा रहेंगे जो भारत के लिये सरदर्द हो सकते हैं। डॉलर की बढ़ती शक्ति से कई देश परेशान हैं, जिनमें ब्रिक्स के मुल्क भी हैं। इसका मुकाबला करने की रणनीति भी ब्रिक्स को बनानी होगी। कहा जा रहा है कि वैकल्पिक करेंसी बनाने की भी चर्चा हो सकती है। 

जो इन देशों के बीच मान्य हो। महंगे डॉलर ने ज्यादातर देशों को परेशान कर रखा है क्योंकि इसके कारण सभी की इकानॉमी के समक्ष बड़ी चुनौतियां खड़ी हो गई हैं। भारत की चीन के साथ बड़ी समस्या सीमा सम्बन्धी है। एक ओर तो भारत के साथ व्यवसायिक रिश्ते मजबूत करने की बात चीन करता है परन्तु जब से मोदी ने कार्यभार सम्भाला है, तब से चीन कई बार भारतीय सीमा का उल्लंघन कर चुका है। 2014 में जम्मू-कश्मीर के चुमार क्षेत्र में चीन के करीब एक हजार सैनिक घुस आये थे। 

18 जून, 2018 को डोकलाम (भूटान) विवाद के चलते लगभग डेढ़ माह दोनों देशों के बीच तनाव रहा। गलवान नदी के किनारे 14वें पेट्रोलिंग प्वाइंट पर दोनों देशों के सैनिकों के बीच खूनी झड़पें हो चुकी हैं। ऐसे ही, अरूणाचल प्रदेश के सुबनसिरि जिले में चीनी सेना द्वारा गांव तक बसाने की शिकायत मिली है। गलवान की विवादग्रस्त जगह लद्दाख के प्रसिद्ध पेंगांग झील के पास है जहां इन दिनों राहुल गांधी मोटर साइकल चलाकर पहुंचे हैं जहां वे 25 अगस्त तक रुकने का इरादा रखते हैं। 

अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के बाद लद्दाखवासियों को हो रही दिक्कतों का वे जायजा ले रहे हैं, लोगों से मिल रहे हैं और मोदी सरकार पर आरोप दोहरा रहे हैं कि चीन ने वहां बड़ी घुसपैठ कर रखी है पर मोदी चीन से बात करने से डरते हैं। हालांकि ऐसा कहने वाले वे अकेले नहीं हैं। कई सूत्रों से ये बातें सामने आई हैं और स्वयं भारतीय जनता पार्टी के नेता व जनप्रतिनिधि इस बात को उठा चुके हैं लेकिन मोदी तथा उनकी सरकार यह मानने के लिए तैयार नहीं है। 

इसके पीछे चीन में भारतीयों तथा भारत में चीन के व्यवसायिक हित हो सकते हैं। मोदी व उनकी पार्टी चीन का विरोध दीवाली की फुलझड़ियों, साज-सज्जा की कतिपय सामग्रियों और कुछ मोबाइल-कम्प्यूटर एप्स पर प्रतिबन्ध लगाकर सोचती है कि उससे चीन को नुकसान हो जायेगा। देखना तो यही है कि मोदी ब्रिक्स के मौके पर होने वाली सम्भावित मुलाकात में ये बातें उठाते हैं या नहीं। अगर ऐसी भेंट तय नहीं है तो मोदी अपनी पहल से वार्तालाप निर्धारित करायें।