आज़।

इस आज़ पर गुफ्तगू,

हर तरफ जारी है,

समय की बलिहारी है,

मुश्किल वक्त का नजारा पास है,

कोई उत्साह और न ही विश्वास है,

कैसी-कैसी परिस्थितियों में,

उलझनें पड़ रहें हैं,

नजदीकियां खत्म हो रहीं हैं,

अपने हमराज़ अब कहां हैं,

सबकुछ सही-सही नहीं है,

यह आज़ की तस्वीर है,

बहुत ही गम्भीर है,

सपने टूटने लगे हैं,

अपने छूटने लगे हैं,

भाईचारे का  लोगों में इल्म नहीं है,

सब बस कर रहे बेवफाई यहां,

फ़ुरसत की उम्र खत्म हो चुकी है,

सब अपनी अपनी मस्ती में,

डूबे हुए दिख रहे हैं,

मां -बाप को कौन पूछता है यहां,

बस पत्नी और बच्चों से सम्बन्ध शेष रह गये हैं यहां,

रिश्तेदारों को कौन तबज्जों देते हैं अब लोग यहां,

बस  खूनी रिश्ते तक,

सिमटी हुई दुनियां अब बच गयी है यहां,

मित्रता तो ज़रूरत की निशानी है,

बलिदान और त्याग,

अब इतिहास के पन्नों में सिमटी हुई कहानी है।

हमें सम्हलकर रहने की जरूरत है,

आज़ समय बहुत ख़तरनाक है,

इससे बचकर रहना,

आने वाले मुसीबतों से बचें रहने की,

एक सख्त हिदायत है।

डॉ० अशोक,पटना, बिहार।