नज़र से रोज़ होते ये तमाशे देख लेता हूँ
पड़े सड़कों पे मुफ़लिस साँस लेते देख लेता हूँ
ज़रा दौलत की या हिर्स-ओ-हवस खातिर बशर को मै
कभी फितरत कभी तलअत बदलते देख लेता हूँ
नहीं करता ज़िरह कोई नहीं लड़ता मैं क़िस्मत से
मिले जैसे भी अब हालात जी के देख लेता हूँ
बड़ा हैरान हूँ मैं खुद ही अपनी तंगहाली से
तिजारत हो रही तन की मैं बिकते देख लेता हूँ
मरासिम है मिरे जिनसे ग़मों के दौर में उनके
शराफ़त ओढ़कर बैठे लिबादे देख लेता हूँ
मेरे अपनो की होती मौत के कुछ चंद लम्हों में
दहर के रंग पल-पल कैसे बदले देख लेता हूँ
मुकम्मल हो नहीं सकते उन्हीं ख़्वाबों को अक्सर मैं
फक़त खामोश हो कर आँख मूंदे देख लेता हूँ
प्रज्ञा देवले✍️