भारत जोड़ो यात्रा राहुल के लिए अध्यक्ष बनने की प्रेरणा

राहुल गांधी तो यात्रा के लिए ही बने हैं। पता नहीं इस पदयात्रा में इतनी देर क्यों कर दी। इससे पहले 2007 में भी वे देश भ्रमण पर निकले थे। हमने उसे कहा था भारत एक खोज! छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, बुंदेलखंड, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश देश के अलग-अलग कितने ही इलाकों में गए थे। खूब लोगों से मिलते हुए उनकी बात सुनते हुए। पिता राजीव गांधी की तरह उतने अच्छे लिसनर (धैर्यपूर्वक सुनने वाले) तो नहीं हैं। मगर कम्यूनिकेटर ( बात करने वाले) अच्छे हैं। संवाद खूब करते हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि अपने विचारों को छुपाते नहीं हैं। उन पर प्रतिक्रियाओं का भी स्वागत करते हैं। अभी भारत जोड़ो यात्रा से पहले उन लोगों से मिले जो हमेशा कांग्रेस के और उनके विरोध में रहे हैं। वहां कहा कि आप मुझसे कुछ कह दीजिए मैं बुरा नहीं मानता। कितनी भी कड़ी आलोचना हो मैं सुनने को तैयार रहता हूं। यह बहुत बड़ा गुण है मगर अधूरा। खैर, जिस सिविल सोसायटी के समूह में वे बात कर रहे थे वहां तो किसी रचनात्मक, मित्रवत सुझाव की गुंजाइश नहीं थी मगर राहुल के ऐसे कई शुभचिंतक हैं परिवार के और परिवार के नजदीक के जो उनसे कुछ सुधार की बात करते हैं।

 विचारों में नहीं। विचारों के क्रियान्वयन की प्रक्रिया में। जैसे वचन अपनी जगह ठीक है। सोच लिया। कह दिया। लेकिन अगर वह व्यापक हितों में, पार्टी के भले में काम नहीं हो रहा हो तो उस पर अड़े रहने का कोई मतलब नहीं है। 2019 में पार्टी अध्यक्ष से इस्तीफा देते हुए कहा कि अब किसी गैर गांधी नेहरू परिवार के आदमी को बनाओ। अब उस पर खुद तो अड़ गए। मगर यह नहीं समझा कि यह आंशिक रूप से ही हो पा रहा है। कांग्रेसियों ने जब पर्ची भी डाल ली। बहुत सारी मीटिंगें भी कर लीं। लेकिन वही मुकुल वासनिक के नाम से आगे नहीं बढ़ सके तो फिर सोनिया गांधी के पास गए। और उन्हें जबर्दस्ती फिर से कांटों का ताज पहना दिया। अस्वस्थ सोनिया के साथ यह अन्याय था। राहुल का उद्देश्य सफल नहीं हो पाया। वचन या प्रतिज्ञा किसी उद्देश्य के लिए होती है। अगर मकसद पूरा नहीं हो रहा तो वह भीष्म प्रतिज्ञा जैसी मजाक की चीज बन जाती है। भीष्म प्रतिज्ञा को कोई सकारात्मक रूप से नहीं लेता। अड़ियल रवैये के रूप में ही लिया जाता है। 

जिसका नतीजा कोई सुखद नहीं निकला। गांधी नेहरू परिवार का नहीं बनेगा। यह बात आदर्श के रूप में तो सही है। लेकिन अगर इस आदर्श से कांग्रेस ही नहीं रहे तो यह आदर्श या वचन किस काम का? दूसरी बात इतना बड़ा फैसला वे अकेले कैसे ले सकते हैं? पार्टी है। वही सर्वोच्च है। अगर वह कहती है तो राहुल मना करने वाले कौन होते हैं? दूसरी बात अब तो प्रियंका गांधी भी सक्रिय राजनीति में हैं। कांग्रेस की महासचिव हैं। परिवार का हिस्सा हैं। उन पर भावनात्मक दबाव बनाकर उन्हें चुनाव की प्रक्रिया से दूर किया जाना क्या सही बात है? यही वह पाइंट है जहां राहुल कहते तो हैं कि मैं आलोचनाओं का स्वागत करता हूं, मगर उनमें से पार्टी हित की बात क्यों नहीं समझते। मानते। प्रयोग के लिए प्रयोग किए जाने का यह वक्त नहीं है। क्रिकेट की भाषा में जैसे कहा जाता है कि नए शॉट के लिए समय नहीं है। ट्रेडिशनल, कापीबुक टाइप ही खेलना है। फंसा हुआ मैच है। हुक करने की जरूरत नहीं। 

ग्राउन्ड शॉट ही मारना है। नए शॉट तब खेले जाते हैं जब मैच हाथ में होता है। एक हाथ से बल्लेबाजी करके दिखाई जाती है और कभी-कभी राइट हैंड बैट्समेन पोजिशन बदलकर लेफ्ट हेंड बैट्समेट की स्टाइल भी दिखाई देता है। मगर सब अनुकूल समय में होता है। इस समय तो ओवर कम ( दो साल से कम समय बचा है लोकसभा चुनाव में) बचे हैं। अभी चुनाव की घोषणा होते ही इतने सारे सवाल खड़े हो गए और उससे मजेदार यह कि नए-नए लोग सामने आ गए। कार्तिक चिदम्बरम भी सवाल उठा रहे हैं! पी. चिदम्बरम के बेटे के अलावा इनकी और पहचान क्या है? मगर कहते हैं कि जब आप कमजोर हो जाते हैं तो चूहे पेट पर से निकलकर जाने लगते हैं। राहुल की समझ में यह बात आ रही है या नहीं पता नहीं। भारत जोड़ो यात्रा तो बहुत अच्छी पहल है। मगर उसके लिए भी मजबूत कांग्रेस चाहिए। यात्रा का नेतृत्व राहुल कर रहे हों और कांग्रेस का नेतृत्व कोई और। यह नहीं चल पाएगा। 

यात्रा और कांग्रेस दोनों पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। राहुल आज सोचते हैं कि जो अध्यक्ष बनाएंगे वह उतना ही निर्भय, जन समर्थक, धर्मनिरपेक्ष, दलित समर्थक होगा जितने वे हैं या कांग्रेस के मूल विचार हैं। लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ तो? क्या फिर कांग्रेस बचेगी? एक बार नेहरू गांधी परिवार के हाथ से बागडोर निकल जाने के बाद कांग्रेस किसा दिशा में जाएगी यह किसी को नहीं पता। प्रतिबद्धता हमारे यहां विरल गुण है। अवसरवादिता सहज स्वभाव है। कांग्रेसियों का भय तो 2014 से ही सामने आने लगा था। मीडिया डिपार्टमेंट के चौयरमेन जनार्दन द्विवेदी ने नरेन्द्र मोदी को भारतीयता का प्रतीक बता दिया था। क्या मतलब था इस बयान का? मोदी हैं। सोनिया गांधी नहीं थीं। शीला दीक्षित उनकी तारीफ करने लगी थीं। प्रणव मुखर्जी तो सीधे नागपुर ही जा पहुंचे। 

कांग्रेसी ज्यादातर सेफ साइड ढूंढने लगे। फिर जिसे मौका मिला वह भाग भी गया। अभी जब तक कांग्रेस के चुनाव होंगे और यात्रा चलेगी राहुल पर, कांग्रेस पर आरोपों का सिलसिला जारी रहेगा। लेकिन अगर राहुल मान गए। अध्यक्ष बन गए तो सीन चेंज भी हो सकता है। दरअसल यात्रा और पार्टी की अध्यक्षता दोनों अलग-अलग चीजें नहीं हैं। यात्रा भी राहुल की है और कांग्रेस के अध्यक्ष के चुनाव भी राहुल केन्द्रित हैं। चुनाव का हर सवाल राहुल से जुड़ा है। इसलिए यात्रा और चुनाव दोनों समानधर्मी हैं। जुड़वां। एक के बिना दूसरे का कोई मतलब नहीं है। और दोनों कांग्रेस के लिए और व्यापकता में देश के लिए जरूरी हैं। भारत जोड़ो से कौन इंकार कर सकता है।

 सबको मालूम है कि नफरत फैलाने वाली, विभाजनकारी ताकतें देश को कमजोर कर रही हैं। पता नहीं कौन सा ज्ञान इन्होंने पाया है जो सोचते हैं कि नफरत, विभाजन, अविश्वास, कटुता, क्रूरता से कोई देश मजबूत होता है। दुनिया में तो आज तक ऐसा हुआ नहीं। नफरत ने देश तोड़े हैं। हमारे पास का ही उदाहरण है। पाकिस्तान। बांग्ला भाषा, संस्कृति, विभिन्नता को स्वीकार न कर पाने का नतीजा हुआ कि पाकिस्तान दो टुकड़े हो गए और भारत में विभिन्नता में एकता का विचार दिया गया तो देश और मजबूत और विस्तृत होता चला गया। गोवा, सिक्किम, अरुणाचल जैसे नए प्रदेश भारत में मिले। राहुल यात्रा के लिए तो उत्साह से भरे हुए हैं। पैदल चलते हुए, लोगों से बात करते हुए, सबके साथ खाते, वहीं कैम्प में सोते वे निश्चित ही रूप से एक बड़ी छवि बनाएंगे। उनका सहज, मित्रवत और आत्मविश्वासी रूप उभरेगा। मगर इतना ही पर्याप्त नहीं है। आज जरूरत है उनके नेता रूप के सामने आने का और वह काम केवल अध्यक्ष बनने से होगा। राहुल जिस दिन यात्रा के बीच से आकर अध्यक्ष पद का नामांकन भरेंगे यात्रा की ताकत कई गुना बढ़ जाएगी और कांग्रेस फिर से नया जीवन पा जाएगी।