मेरे अंदर का लेखक है जनाब,
हजारों सवाल करता है।
कभी सोता, जगता हैं,
कभी यह गुदगुदाता है।
कभी जलता जाए धूप में,
कभी ठंडी छांव दिलाता है।
कभी चित्कार उठता है जिंदगी में,
कभी खिलखिला उठता है बंदगी में।
मेरे अंदर का लेखक है जनाब,
हजारों सवाल करता है।
कभी दुनिया से जीतता है,
कभी खुद से हार जाता है।
कभी कलम उठाने से डरता है,
कभी कलम के रुकने से डरता है।
मेरे अंदर का लेखक है जनाब,
हजारों सवाल करता है।
कभी भावनाओं में बह जाता है,
कभी राजनीति की बात करता है।
कभी किसी कतरे में ढूंढता रवानी,
कभी यूं ही बिता जाता है जवानी।
मेरे अंदर का लेखक है जनाब,
हजारों सवाल करता है।
कभी शब्दों का यह पुलिंदा बनाता है,
कभी निशब्द होकर भी सब कह जाता है।
कभी दिलों को यह धड़काता है,
कभी बिछड़ों को मिलाता है।
मेरे अंदर का लेखक है जनाब,
हजारों सवाल करता है।
कभी किसी को नाराज करता है,
कभी किसी के अरमान सजाता है।
कभी किसी के हुस्न के कसीदे पढ़ता है,
कभी बहारों को दिलरुबा के नाम करता है।
मेरे अंदर का लेखक है जनाब,
हजारों सवाल करता है।
कभी पहाड़ झरना एक साथ ले आता है,
कभी इंद्रधनुष का रूप रंग दिखाता है।
कभी बेमौसम प्यार की बरसात कर दे,
कभी विरह की अग्नि में भी जलाता है।
मेरे अंदर का लेखक है जनाब,
हजारों सवाल करता है।
हजारों सवाल करता है।।
शिखा अरोरा (दिल्ली)