खामोशियाँ बेहतर है जज़्बात ज़ाहिर न कीजिए,
है ज़माना बड़ा खराब अपनी बात ज़ाहिर न कीजिए।
पढ़ न सके जो खामोशी,वह बात क्या समझेगा भला,
मौन में मुखरित शब्दों को,बेबात ज़ाहिर न कीजिए।
रहनुमा बनकर जो आते हैं जाने कब रक़ीब बन जाते हैं,
आँसुओं को छुपा पलकों पर आघात ज़ाहिर न कीजिए।
तबस्सुम बिखेरकर लबों पर उन्हें बंद कर लीजिए,
ग़मज़दा शब्दों की बरसात ज़ाहिर न कीजिए।
देख उनकी बेवफाई को अब हाल ये हुआ है 'रीमा'
हँसता है उजाला हम पे ,ग़म की रात ज़ाहिर न कीजिए।
रीमा सिन्हा (लखनऊ)