सताए हुए लोग

मत छेड़ो साथियों

सताए हुए लोगों को,

हर काल हर वक़्त के

चोट खाए हुए लोगों को,

विवेक के अनुसार चलने की

बात भुलाकर,

धर्म के नशे में

उलझाए हुए लोगों को,

कौन अपना कौन पराया,

बात कभी न रास आया,

हर सितम को भुलाया,

रोष कभी न जताया,

पल पल जातिवाद से

रुलाए हुए लोगों को,

एकता की हर गुहार

नजरअंदाज कर के,

जुल्मों से भरी तंग

राहों से गुजर के,

चले जा रहे

आंखों में अश्रु भर के,

नहीं कभी बताते

पीड़ा अपने जिगर के,

दो वक़्त की रोटी खातिर

हड़बड़ाए हुए लोगों को,

समझा के थक चुके हैं

मूलनिवासी बुद्धिजीवी,

अपने मत व सत्ता की ताकत

नहीं समझ रहे श्रमजीवी,

मिथकों के पीछे पागल

हुए हैं सारे बहुजन,

छोड़ मेहनत, कर खर्च पैसे,

कांवड़ उठा

इतराए हुए लोगों को,

कुछ सोए हुए,

कुछ करते नाटक सोने का,

जिन्हें नहीं कोई मतलब

हक़ अधिकार खुद के खोने का,

है समझते अपनी शान कर

बैरियों के संस्कार ढोने का,

भविष्य में होगा एक ही काम

जिनके लिए रोने का,

नकली लेबल अपने सीने में

चिपकाए हुए लोगों को,

मत छेड़ो साथियों

सताए हुए लोगों को।

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़