नित सुमिरन मैं करूँ ,
प्रभु दर्शन को ना तरसूं मैं।
रोम रोम में तू बसा है
फिर देखन को काहे तड़पूं मैं?
क्यों जाऊँ मथुरा- काशी ,
काहे मक्का मदीना मैं?
चिर स्पन्द में तू बसा है ,
तेरी ही लघु काया मैं।
प्रभु कृपा बस इतनी कीजै,
कटु वाणी न अपनाऊँ मैं,
बोली मेरी अमृत सम हो,
कर सदैव सेवा में उठाऊँ मैं।
हॄदय में तुम बसे हो फिर
किस बात से घबराऊँ मैं?
सत्य पथ की बन सहगामिनी ,
आगे बढ़ती जाऊँ मैं।
रीमा सिन्हा (लखनऊ )