कभी पैसों का पेड़ लगेगा,
कभी नोटों की बारिश होगी,
फिर अपना भी घर होगा,
और अपनी भी लंबी गाड़ी होगी,
बड़े ठाठ होंगे जब, नोटों की फसल
उगाऊंगा तब मेरे भी घर आंगन में
नोटों की बारिश होगी, सबको तभी
एक बड़ी दावत दूंगा और नोटों
पर ही बिठाऊंगा, भरपेट उन्हें
खिलाऊंगा और नोटों पर ही सुलाऊंगा,
नहीं मानूंगा, सबको झोला भरभर दे दूंगा,
जिसका पेट दुखेगा, उसको नोटों से तोलुंगा,
यही सोच बोये थे मैंने कुछ सिक्के कलदार
अपने घर में पर मां और बाबा बोले, अरे
बुद्धू हैं क्या पैसों के पेड़ नहीं लगते,
यदि ऐसा सच होता तो हम क्या सारे
गरीब, गरीब नहीं होते, तुम अपना भ्रम खोलो
मेहनत पर विश्वास करो, कुछ खास करो !
(स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित)
- मदन वर्मा " माणिक "
इंदौर, मध्यप्रदेश