ज्यों सदियों से तृषित चातक को,
होती स्वाति की इक बूँद की प्यास,
वैसे ही सूखे पड़े रिश्तों को होती,
संवाद की जरूरत और आस।
बिन संवाद के मन में आते अनेक विचार,
कल्पना करते हम जो होता निराधार।
अबूझ पहेली बन जाते फिर रिश्ते,
संवाद बिना ज्यों नीर हो क्षार।
माना कि प्रेम सिर्फ है एक भावना है,
पर ज़रूरी इसे भी दर्शाना है।
पशु पक्षियों की भी रहती अपनी बोली,
संवेदना ही है संवाद की हमजोली।
रिश्तों की कुसुमित बगिया है,
गाँठ पड़ने से उसे बचाओ।
संवाद के नीर से सिंचित करो,
प्रेम सौहार्द के पुष्प खिलाओ।
रीमा सिन्हा (लखनऊ)