बचपन के वो अनुपम किस्सें,
आनंदित आज भी करते हैं ।
धूल भरी पगडंडी गांव की,
हम याद आज भी करते हैं ।
कुएं पर पनिहारिन संग ठिठोली,
मीठी मधुर थी इनकी बोली ।
जाने कहां गए वो दिन जब ,
जब खेला करते थे आंख मिचौली ।
आंगन में चारपाई का बुनना ,
संस्कारों की अनमोल बातें सुनना ।
दादी का चरखे पर सूत कातना,
और परियों की कहानी सुनाना ।
घर आंगन में गौमाता की सेवा,
दूध मलाई मन भरकर खाना ।
जाने कहां गए वो दिन जब
मिट्टी से सोंधी खुशबू का आना ।
अपने धूल धूसरित तन को लेकर ,
मैया के आगे मार पालथीबैठ जाना ।
कुएं से भरकर पानी हमको नहलाना,
जाने कहां गए वो दिन वो मौसम सुहाना।
स्वरचित एवं मौलिक
अलका शर्मा, शामली, उत्तर प्रदेश