कर्मठ

ये हड्डियों का ढांचा ही रह गया है अब लक्ष्मी के पास, एक और चीज है, जिससे मन की अमीरी झाँक रही है, पहचाने आपलोग...... मेरी कहानी की नायिका की मुस्कुराहट।

16 वर्ष की उम्र में लक्ष्मी, अंशुल के घर गोदी में 1 वर्ष का बेटा लेकर आई, "माई कुछ खाने को दे दो, बेटवा हमके सूखा देहले हई।"

" जाओ, काम वाम करो, मुफ्त का कौन देगा"

"ऐसे न बोलो, हम तो राजी है, केउ काम नही देत है, असल मे बैरन जवानी है, एक के घर दो साल काम किया तो ई बिटवा परसाद में मिला, हम भाग के आ गयी।"

ऐसा भी होता है, सोचकर भावुक अंशुल  का दिल पसीजा, चार बासी रोटी, अचार उसको दिया। 

" ईमानदारी से काम करोगी तो मेरे स्कूल में रोज झाड़ू मारो, रोज 20 रुपये ले लेना।"

बेचारी खुश हो गयी, स्कूल के पिछवाड़े अहाते में ही रहने लगी।

छः महीने के बाद अंशुल के पास आई, "मेम, एक सिलाई मशीन खरीदना है, मैने पैसे जमा किये हैं।"

चलो, ले आते हैं।

समय अपने हस्ताक्षर करते हुए आगे बढ़ता गया, मशीन से कपड़े सिलकर लक्ष्मी ने अपने नाम को भी सार्थक किया, बेटे को पढ़ालिखा कर बैंक में जॉब दिलवाई। बेटा नए घर में गया, पर उसने स्थान नही छोड़ना चाहा। 

आज भी वो स्कूल की सफाई और कपड़ो की सिलाई करती हैं।

स्वरचित

भगवती सक्सेना गौड़