बेरहम समय की कैसी ये धारा है
ना मिलता मंजिल ना किनारा है
बहुत सताया है रे तुम बेईमान
कैसा दिल पाया है तुम रे शेतान
जब जब तुमको आया है बहुत क्रोध
तब तब इन्सान को रूलाया हर रोज
अपनी जिद की करता तुँ मनमानी
मजबूरी किसी की ना तुम पहचानी
दिनरात जगत को तुँ है तड़पाया
बाल गोपाल को भी बहुत रुलाया
बुरे वक्त में अपनों को भी है देखा
मक्रकारी की मूरत का है लेखा
जगत में तेरी यह कैसी है व्यापार
हर जन का बदल जाता है व्यवहार
मुझे समझ में तब था मुझे आया
अपना का बर्ताव जब पाया पराया
हँसता खिलता गुलशन है उजाड़ा
सुखमय जीवन को तुँने पछाड़ा
क्या मिलता है इंसान को उजाड़कर
खुश होता है क्यूँ दिल को दुखाकर
रे वक्त अब तो मानवता तुम सीखों
और जुल्म सितम किसी पर ना बीतो
जग में फिलवक्त हर कोई है परेशान
चन्द दिनों का सव मानव है मेहमान
गर जिन्दगी है परेशानी का तौहफा
जिन्दगी सब कर लेगा तब तौबा
नहीं चाहिये ऐसी बेरूखी संसार
करता हूँ में जीवन का प्रतिकार
उदय किशोर साह
मो ० पो० जयपुर जिला बाँका बिहार