ग़ज़ल : मौत से वापसी नहीं होती

गर मुहब्बत हुई नहीं होती

ज़िंदगी ज़िंदगी नहीं होती


इस जहाँ में कभी किसी का दिल

तोड़ कर आशिक़ी नहीं होती


जब तलक चीर कर न रख दो दिल

तब तलक शायरी नहीं होती


वस्ल जब ज़िंदगी का मौत से हो

रात की सुब्ह भी नहीं होती


गर ख़ुदा होता तू ज़माने का

मौत इंसां तिरी नहीं होती


रख न इतना गुमान इस दिल में

मौत से वापसी नहीं होती


कोशिशें तुम तमाम कर लो पर 

ग़म से वारस्तगी नहीं होती


ज़िंदगी बस गुज़र ही जाती है

पूरी ख़्वाहिश कभी नहीं होती


प्रज्ञा देवले✍️