रस हैं अधर,छन्दसी आँखें,अलंकार सा तन है रे
पद्मावत सी प्रिया तिहारो,वृन्दावन सा मन है रे
नयन तुम्हारे श्लोक सरिस हैं,भावों में गंगाजल है
चितवन कालिंदी का तट है,शुभ्र स्वच्छ औ निर्मल है
प्राणतन्त्र साँसों में तेरे,मलयागिर चन्दन है रे
रूप तुम्हारा रामायण है,इन्द्रधनुषी छवि है
विद्यापति की कीर्तिलता तू,सम्मोहित यह कवि है
दर्शन तेरे नख,शिखका ज्यों देवालय वन्दन है रे
चन्द्र ज्योत्सना सी आभामय ,शाम सुरमयी तू है
क्षितिजान्गन में बिखरी जैसै फूलों की खूशबू है
चित्रलिपि सज्जित लगती ज्यों,पुष्पों का अंकन है रे
तेरी उपमा लिखते लिखते कलम थकी बेचारी
लिखें भला क्या,छोडें क्या,बोलो कविता सुकुमारी
कज्जल नयन सघन घन कुन्तल,लहराया सावन है रे।
- डॉ. गोरख प्रसाद मस्ताना
बेतिया , बिहार