इंसान की मजबूरियां

समय बदला बढ़ गई इंसान की मजबूरियां

पास भी हैं फिर भी कितनी बढ़ गई हैं दूरियां

पढ़े लिखे समझदार होने का दम भरते हैं सारे

फिर भी जाने क्यों नहीं अब घट रही हैं दूरियां


आंगन में किलकारियां बच्चों की चारों ओर थी

आज बच्चे घर में नहीं पैदा होते अस्पताल में

मक्कारी धोखा हर तरफ किसको कैसे गिराएं

दिन रात डूबे रहते हैं इसी ख्याल में


बच्चे भी आजकल मां बाप से हो गए हैं दूर

प्राइवेट नौकरी के चक्कर में हो गए हैं मजबूर

सुबह से शाम बहुत व्यस्त रहते है काम में

मिलने की ललक तो रहती होगी उनके मन में भी जरूर


हंसते मुस्कुराते वह पल छीन कर ले गया मोबाईल

पास बैठे होते हैं लेकिन मन से हो गए हैं दूर

इससे तो वह पुराना ज़माना ही अच्छा था

मिलते थे तो बातें होती थी बहुत दूर थे तो दूर


मजबूरी समय की कमी सभी यही बताते है

न मिलने के पीछे सौ बहाने गिनाते हैं

पत्थरा गई हैं बूढ़ी आंखें ईंतज़ार करते करते

मिलने की आस में उनके आंसू छलक जाते हैं


कोई रोजगार ढूंढते ढूंढते आ गया है तंग

कोई बाप की नौकरी पर मौज उड़ा रहा दोस्तों संग

अंदर क्या है किसी के बता नहीं सकता मजबूरी है

इन मजबूरियों ने कर दिया जीवन को बदरंग


हाय रे इंसान की मजबूरियां क्या क्या करवाती हैं

अपनों को ही अपनो से ही दूर ले जाती हैं मजबूरियां

मन में छुपे दफन राज़ किसी को बता नहीं सकते

न जाने क्या क्या गुल खिला जाती हैं मजबूरियां


रवींद्र कुमार शर्मा

घुमारवीं

जिला बिलासपुर हि प्र