आजकल की युवा पीढ़ी किस दिशा में जा रही है, देश को जलाने में किसका हाथ है? सवाल उठता है कि दंगाई कौन है? किसके इशारों पर कुछ विद्रोही मुद्दे को जाने, समझे बिना देश को जलाने निकल पड़ते है।
"अधजली चिंगारी को कौन हवा दे रहा है, देश की मिट्टी को कौन फूँक रहा है, देश के दुश्मन है या देश के प्रति सद्भाव ही नहीं" आज जो देश के हालात है उसके जिम्मेदार कई पहलू है। किसी एक पर दोषारोपण नहीं कर सकते। सबसे पहले इंसान की मानसिकता की बात करें तो आज देश की जनता को हर मुद्दे का विरोध करने की आदत पड़ गई है। बिना सोचे समझे भेड़ चाल का हिस्सा बनते विद्रोह की लाठी लेकर निकल पड़ते है। विरोध है तो धरना प्रदर्शन कीजिए, भूख हड़ताल कीजिए ऐसे देश की संपत्ति को जलाना आपके संस्कारों पर सवाल उठाता है, आपकी नीयत पर संदेह होता है। क्यूँ भै विद्रोह में अपने घर को क्यूँ आग नहीं लगाते? जला दो घर और करो विरोध। पर नहीं वो तो आपका अपना आशियाना है न क्यूँ जलाओगे...तो क्या ये देश आपका अपना नहीं? देश की संपत्ति आपकी नहीं जो फूँक रहे हो। शर्म आनी चाहिए देश को जलाने के खयाल पर भी अपराधबोध होना चाहिए।
दूसरा सियासतों की बात करें तो हर मुद्दे को धार्मिक रंग देकर पेश करके दो कोम के बीच इतना वैमनस्य फैला देते है की एक ही मुल्क में रहने वाले एक ही सिक्के के दो पहलू समान लोग जात-पात पर उतर आते है। और उस आग में घी ड़ालने का काम करते है धर्म के ठेकेदार। अपने आप को धर्म गुरु कहलाने वाले अपने भड़काऊँ भाषणों से युवाओं को गैरमार्ग पर ले जाकर भटका देते है। नतीजन देश में दंगे, आगजनी और अराजकता का माहौल खड़ा हो जाता है।
रही सही कसर पूरी करता है मीडिया, हर छोटी-बड़ी बात पर दंगल करवाते विशेषज्ञों और धर्म गुरुओं की फौज बिठाकर परिचर्चा के नाम पर जनता के दिमाग में ऐसा ज़हर भर देता है, कि मूर्ख जनता हर बात दिल पर लेकर आपस में भीड़ जाती है। क्यूँ मुद्दों की संभावनाओं पर द्विअर्थी प्रश्न चिन्ह लगाकर मीडिया वाले छोड़ देते है? जिसको कुछ लोग अंजाम देने निकल पड़ते है।
छोटे से मशीन मोबाइल ने सारी हदें पार कर दी है, ये जो फाॅरवर्ड, फाॅरवर्ड का खेल चलता है वो बहुत ही ख़तरनाक है। एक बंदा विडियो बनाकर अपलोड कर देता है जो चंद पलों में विश्वभर में पहुँच जाता है और ये हल्की सी चिंगारी आग की लपटें उगलने लगती है।
देश को बर्बाद करने के लिए दुश्मन देश की जरूरत ही नहीं, देश में ही दंगई और साज़िशें रचने वाले भरे पड़े है। राजनीति में जब कड़वाहट घुल जाती है तब सार असार की सोच विलुप्त हो जाती है। विपक्षियों के दिमाग से उपजे षडयंत्रों का भोग युवा बनते है, जो पाँच सौ की नोट और एक बोतल दारू के बदले कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाते है। अपने लक्ष्य से भटक कर देश को जलाने निकल पड़ते है। क्यूँ जानमाल को जलाने से पहले हाथ काँपते नहीं, लोग सोचते नहीं की ये देश मेरा है, इस मिट्टी में जन्म लिया है। कैसे विनाश कर सकते है, देश की इस हालत के लिए हर वो इंसान जिम्मेदार है जो जात-पात के नाम पर, धर्म के नाम पर, सियासत के नाम पर राजनीति करके देश की शांति भंग कर रहे है।
और वो जिम्मेदार है जो चंद रुपयों के लिए अपना इमान गिरवी रख देता है। ये सारे के सारे दंगाई है जो देश में रहकर दीमक की तरह देश की नींव को खोखला कर रहे है। हमारा देश इतना सशक्त है कि एकजुट बन जाए तो महासत्ता बनकर विश्व नक्शे पर उभर सकता है, पर जहाँ एक ही देश की सरजमीं को साझा करने वालों के दिलों के बीच दूरी है वहाँ ये कामना करना बेकार है। युवा पीढ़ी देश का भविष्य होती है, आगे जाकर देश की बागडोर इनमें से की किसी के हाथों आनी है, क्या उम्मीद करें हम ऐसी विचारधारा रखने वाले युवाओं से जो देश की संपत्ति को जलाने में खुद को महान समझता है।
भावना ठाकर 'भावु' बेंगलोर