प्रेम में
अर्पण कर खुद को
ह्रदय मीरा हो गया था
समर्पित ह्रदय से
नतमस्तक हो
चूम लिए थे
चरण तुम्हारे "हरि"
हमारे इन लबों नें,
कुछ शेष
बचा ही नहीं था
मेरे भीतर " मैं"
कहनें को,
सब ,सब कुछ
हम में परिवर्तित हो
निर्झर-निर्झरणी ह्रदय में
फूट पड़ी थी
गंगा प्रेम की,
अंजुली भर चरणामृत
होठों के तुलसी दल
के सहारे भर लिया था
हृदय कलश में ,
प्रेम खग के
प्रेम की
पहली अनुभूति से
रोम-रोम
रोमांचित हो उठा था,
क्षमता से अधिक
ऊंची उड़ान भर बैठा
मन का पंछी,
मुह से मुखरित न हो सका
प्रेम का विस्तृत स्वरूप
मौन के अधिनस्थ
अभिव्यक्ति में
शब्दों का अभाव
मेरी विवशता सा
बन गया ।
फिर भी रह न
सका मेरी प्रीत का
मान तुम्हारे समक्ष ?
क्यों ? लिखा है
प्रेम के आलेखों में
किस्मत वाला पन्ना,
आमतौर पर
अडिग खड़ा मिल
जाता हैं हर मोड़ पर
हमारी-तुम्हारी सांसों
में व्यवधान बनने को ,
तुम हर शब्द से
पिरोते प्रेम पुष्प
स्नेह का धागा
ह्रदय के गहरे सागरतल से
क्यों ?लाते हो
लेखनी में शब्द मोती
माणिक और
ह्रदय में गिराने को स्वाति बूंद ,
कोई
चाहे न चाहे प्रेम
हो ही जाता हैं
पढ़ते-पढ़ते,
तुम्हारी लेखनी के
इसी सम्मोहन के वशीभूत
निकल गये खुद से
इतनी दूर
झुक गया तुम्हारे
चरणों में
मस्तक
प्रेम के स्वामी हरि,
सांसों के अन्तिम छोर
तक बंधे सांसों संग
चलते रहोगें मेरे संग
यूंही निरंतर तुम
भूल कर भी भूल
नहीं सकते तुम्हें
तुम्हारा नाम
अन्तिम बेला का
स्मरणोत्सव होगा
मेरा।
स्वरचित एवं मौलिक रचना
नाम:- मंजू किशोर "रश्मि"