पृथ्वी के उत्तरी-दक्षिणी ध्रुव जितनी दूरी वाली रेखा अमीरों और गरीबों के बीच बन पड़ी है। गरीब सिर्फ गरीब होने के लिए जी रहा है। जबकि अमीर और अमीर होने के लिए। जहरीली चिमनियों का धुआँ मालिकों के घर अमीरी का पर्दा तो गरीबों की जिंदगियों पर कफन बनता जा रहा है। हरियाली का गला घोंटकर कृत्रिम ऑक्सीजन का व्यापार किया जा रहा है। भोजन के नाम पर कैप्सूल, गोलियाँ, वैक्सिन और जल के रूप में ग्लुकोज का सेवन किया जा रहा है। गौर से देखा जाए तो रुपया-पैसा खाया जा रहा है। आत्मीयता के नाम पर दूरियाँ बढ़ती जा रही हैं। किसी को किसी से मिलने की फुर्सत नहीं।
चाँद पर पहुँचने वाले हे अहंकारी मनुष्य! अब बताओ क्या तुम बड़ी-बड़ी बिल्डिंगों से कोरोना रोक सकते हो? क्या आलीशान घोड़ा-गाड़ी, सोना-चाँदी, हीरे-जवाहरात से कोरोना भगा सकते हो? क्या कोरोना को रुपए-पैसों का रिश्वत देकर उसका मृत्यु तांडव समाप्त कर सकते हो? मनुष्य का भेदभाव आज उसकी मौत का कारण बनता जा रहा है। सूट-बूट पहनने वाले के साथ एक तरह का तो गंवारू कपड़े पहनने वाले के साथ दूसरी तरह का बर्ताव किया जा रहा है। अब भी रुपए-पैसे की विषबाला का खेल बदस्तूर जारी है। वह समाज में घर कर चुका है। अमीरों के बदन पर अहंकार बनकर लिपटा पड़ा है। ये अंतर कइयों की अंतर्पीड़ा है। जीते जी मृत्यु की क्रीड़ा है। इदं और अहं के बीच लाचार इड़ा है।
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657