अब संयुक्त परिवार सारे ,
पश्चिमी सभ्यता अपनाकर !
हम क्यों भविष्य की ओर निहारे ।।
बच्चों के सर पर हाथ बड़ों का
अब कहां कहीं भी दिखता है
अपनी अपनी सुख सुविधाएं हैं
परिवार कहां किसीको दिखता है ।।
मर्यादाएं टूट रही रिश्तों में
छूट रही हर हैं रिश्तेदारी
बड़े छोटे का मान नही कोई
मत गई है सबकी मारी ।।
अहंकार में अंधी दुनिया
खुशी बिलख रही है सारी
बच्चें बोझ समझते है अब ,
माता पिता की जिम्मेदारी ।।
पैसों से तोले जाते हैं संबंध
मोल नहीं रहा अब रिश्तों का
जिसपर आय नही है भारी
उसकी नही अब कोई रिश्तेदारी।।
अपने मतलब से ही रखते ,
आज परिवार में सांझेदारी!
जब निज स्वार्थ बढ़ जाता
परिवार टूटता नजर आता है।।
टूटते टूटते परिवार यह कह रहें
विलुप्त होती है विरासत हमारी
कभी आंगन में ही सब कुछ था
अब रह गई है सिर्फ चार दिवारी।।
प्रतिभा दुबे
ग्वालियर मध्य प्रदेश
महाराज बाड़ा