हाथी के दाँत


प्रगति एक प्रतिष्ठित समाज सेविका थी। नारी उत्थान के लिए अन्य संस्थाओं के सहयोग से बहुत कुछ किया था प्रगति ने। और आज भी कर रही थी। आज तो प्रगति की ख़ुशी का ठिकाना ना था, बचपन की सखी सुषमा जो आई थी। बहुत देर तक दोनों बीते बचपन को याद करते रहे। फिर खाना खाकर गुनगुनी धूप में छत पर आकर बैठ गए।

  सुषमा इस बार कुछ ख़ामोश

 नज़र आ रही थी। लग रहा था जैसे कुछ कहना चाहती थी, पर कह नहीं पा रही थी।

 सुषमा के मन को भाँपते हुए प्रगति ने सुषमा के हाथ पर हाथ रखते हुए कहा.. "क्या हुआ, तू ठीक तो है?"

 प्रगति के इतना कहते ही सुषमा फूट पड़ी 

"क्या करूं? अब तू ही रास्ता बता। जीवन भर जिन बच्चों के लिए जीती रही, वही बच्चे भी अब सुनाने लगे हैं। पति की नजरों में और ससुराल में तो कभी प्यार और मान मिला ही नहीं। अब हालत और बिगड़ने लगे हैं। जानते हैं पति की आर्थिक रूप से उन्हीं पर निर्भर हूंँ। कभी निकलने ही नहीं दिया घर से, तो नौकरी कैसे करती। मायके में भी कब तक गुजारा करूंँगी.. तो वह सोचते हैं कि इसे कुछ भी कहेंगे, अपमानित करेंगे, तब भी कहीं नहीं जा सकती। दो रोटी के लिए पड़ी ही रहेगी दरवाजे पर।

      सबकी सुनते सुनते आदत हो गई थी सहन करने की। और किया भी। लेकिन अब बच्चे भी कुछ नहीं समझते तो सहन नहीं होता।"

 यह सब कहते हुए आंँखें भर आई थी सुषमा की, और चेहरा लाल हो गया था गुस्से में... प्रगति का।

प्रगति लगभग चिल्लाती हुई सी बोली-

 "क्यों सहन कर रही हो यह सब? निकल क्यों नहीं आती? जब छोड़ दोगी उन लोगों को, तब समझ आएगा उन्हें कि एक तुम ही थीं जिसने घर को बना कर रखा था। हिम्मत करो और निकल आओ। मैं भी मदद कर करूंँगी जो भी संभव होगा। भले ही किसी के घर के बर्तन साफ करके जी लेना, लेकिन अपमान की ज़िंदगी से कहीं अच्छी होगी वह ज़िंदगी।"

बात करते-करते शाम हो गई सुषमा की वापसी का वक्त हो गया। उसे ऑटो में बैठाकर विदा किया और उसके बाद जैसे सुन्न सी पड़ गई थी प्रगति। 

बाहर सब शांँत था लेकिन अंदर झंझावात चल रहा था। अब अपने भीतर के संवाद को सुन रही थी वह।

यही तो होता रहा था उसके साथ में भी। वह तो अपने पैरों पर खड़ी थी। तब भी ना छोड़ पाई थी उन रिश्तो को, जो उसे हमेशा दुख देते रहे। 

कभी लोग क्या कहेंगे.. का डर। और कभी बच्चों को पिता कहांँ से लाकर दूंगी.. वगैरह वगैरह।और उलझी रही इन तमाम बातों में। और चाह कर भी हिम्मत न जुटा पाई थी,न निकल पाई इन सब से।

 कितना आसान होता है न, किसी को सलाह देना? और कितना मुश्किल होता है, उन्हीं हालातों से ख़ुद जूझना। शायद इसी को कहते हैं।

 हाथी के दांँत, खाने के और दिखाने के और।


प्रमिला 'किरण'

इटारसी, मध्य प्रदेश