जब भी वो आए बेनकाब आए
कैफियत पूछी उस हसीना ने
बारहा उसके जश्ने ख्वाब आए
लफ़्ज़ गश खा के गिर ही जाते हैं
पेश मुखड़ा वो जब किताब आए
छल न मिट्टी को बेहिसाबो में
वो सजा देने बू-तराब आए
लोग जाने अबस विधा क्या क्या
ज़िंदगी हमको बस सवाब आए
सुन ज़माने ज़फ़ा न कर इतनी
दिल अगर भड़के इंक़िलाब आए
प्रज्ञा देवले✍