ग़ज़ल

मैकदों के बिना शराब आए

     जब भी वो आए बेनकाब आए


कैफियत पूछी उस हसीना ने

      बारहा उसके जश्ने ख्वाब आए

        

लफ़्ज़ गश खा के गिर ही जाते हैं

      पेश मुखड़ा वो जब किताब आए

   

छल न मिट्टी को बेहिसाबो में

      वो सजा देने बू-तराब आए


लोग जाने अबस विधा क्या क्या

      ज़िंदगी हमको बस सवाब आए


  सुन ज़माने ज़फ़ा न कर इतनी

      दिल अगर भड़के इंक़िलाब आए


प्रज्ञा देवले✍