सत्ता का झुनझुना

जुबान से पलटना, कही बात से पीछे हटना, पार्टी सिद्धांत से खुद को बड़ा समझना एक सफल नेता की निशानी होती है। नेताजी कपड़े बदलें न बदलें पार्टी जरूर बदलना चाहिए। ऐसा करने से उनकी नेतागिरी की धाक बनी रहती है। सबकी अपनी-अपनी जरूरतें होती हैं। सबके अपने-अपने पेट और मुँह होते हैं। फिर नेता जी की जरूरतों का मुँह कुछ ज्यादा ही बड़ा होता है। न ये कभी भरा था, न भरा है और न कभी भरेगा। ओलंपिक्स में लांग जंप करने वाला खिलाड़ी हार जाए तो खाली हाथ लौटता है जबकि नेता दाएँ-बाएँ, ऊपर-नीचे हर दिशा में जंप करके कुछ न कुछ हथिया ही लेते हैं। वह भी न मिले तो बाजू वाले का ही सही हड़पने की काबिलियत तो रखते ही हैं। जिस तरह खुली हवा में टहलने से स्वास्थ्य बना रहता है उसी तरह पार्टी बदलते रहने से नेता जी की रौनक बनी रहती है। यही वजह है कि पिछले चार साल में चार सौ से अधिक बड़े नेताओं ने पार्टियों की ऐसी अदला-बदली की जैसे गंगा जी का मेला हो। नारा भी गजब – अबकी बार - जंप लगा यार!

डंडा वही पर झंडा अलग की तर्ज पर नेता वही पर टोपी अलग की रेस में नेताजी ने चोरी-चोरी, चुपके-चुपके पार्टी बदल ली। और पार्टी भी वही जिसे वे बरसों से गरियाते रहे। गरिया-गरियाकर उनका मुँह गरियाने का शोधालय बन गया। अब ऐसे शोधालय से गरियाने की खरी न निकलेगी तो मीठी-मीठी फुलझड़ी झड़ेगी? पार्टी बदलने के बाद मीडिया का सामना करना कोई इनसे सीखे। यह पूछने पर कि आपने पार्टी क्यों बदली तो ‘जनता, निर्वाचन क्षेत्र और देश के विकास के खातिर’ जैसा कर्णप्रिय वनलाइनर कहकर सबके मुँह पर ताला लगा देते। जबकि इस वनलाइनर का गूढार्थ ‘रहिमन पानी राखिए’ वाले ‘पानी’ से भी भारी था। अब भला कोई नेता जी को कौन बताए कि विकास नाम का जीव अंग्रेजों के जमाने से ही गायब है। आजादी के बाद सीबीआई, आईबी, रॉ, ईडी सभी को इसी के पीछे लगा दिया। सबने अपने हाथ खड़े कर दिए। आज तक उसकी खोज जारी है। हाल ही में विकास नाम का एक प्राणी पुलिस वालों के हत्थे चढ़ा था, बदकिस्मती से मुठभेड़ में ढेर कर दिया गया। ढेर करना भी जरूरी था। यदि इसे ही विकास मान लिया जाता फिर भला नेताजी को कौन पूछता?

जनता सोचती है कि पार्टी बदलना दाल-भात का कौर है। वह तो नेता जी का दिल ही जानता है कि वह दाल-भात का कौर है या फिर लोहे के चने चबाना। दो मिनट पहले तक जिस पार्टी के सदस्यों को माँ-बाप, भाई-बहन से ज्यादा प्रेम करते थे उनके साथ जानी दुश्मन की तरह  व्यवहार करना कोई आसान काम नही हैं। इससे भी ज्यादा मुश्किल काम है जानी दुश्मन के साथ बत्तीसी खिखियाते हुए आलिंगन करना। इसके लिए पत्थर जैसा जिगरा चाहिए। क्या ऐसा जिगरा जनसामान्य के पास है? इसीलिए जनता को अपनी औकात नहीं भूलनी चाहिए। कल तक विरोधी दल के सिद्धांतों का चीड़-फाड़ करने के लिए एक टांग पर खड़े होकर जोरदार भाषण देने वाले नेता जी का, अब उन्हीं सिद्धांतों के भजन-कीर्तन करते मुँह नहीं थकता। तलवार से लगने वाले विरोधी हाथों से हाथ मिलाना बड़े साहस का काम है। सबसे बड़ा दाव तो वे अपने राजनैतिक भविष्य का खेलते हैं। खुदा न खास्ता जिस दल में नेताजी गए हैं, अगर वह हार गया तो शेष जीवन झुनझुना बजाने के लायक भी नहीं बचता। 

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त, मो. नं. 73 8657 8657