इक बार चख के देख ज़रा सी दवा भी है
तेरे मेरे ही बीच में क्यूँ सिलसिला है ये
कुर्बत कभी रही तो कहीं फासला भी है
हर कोई इस जहाँ में सिकंदर नहीं होता
हालात से मरा कोई ज़िंदा जला भी है
ये तुम पे हैं की तुमने उसे किस तरह लिया
वो ज़िंदगी दुआ है कभी तो सज़ा भी है
अक्सर गरीब रोते हैं महलों के साए में
जीना अगर कला है सुना है सदा भी है
गर सामने हसीं हो धड़कता नहीं कभी
लगता हमें ये दिल कहीं हमसे ख़फ़ा भी है
क्यूँ न्याय शील है नहीं लगता हमें कहीं
गर ज़िंदगी ख़ुदा का हसीं फैसला भी है
किसको सुनाऊँ यार मुहब्बत की दास्ताँ
जो हमनवा है मेरा कहीं बेवफ़ा भी है
रुकती तो ज़िंदगी नहीं आदर्श के लिए
क्या फर्क पड़ गया है अगर वो खरा भी है
क्या-क्या नहीं किया है उसने साँस के लिए
मासूम ज़िंदगी से तपा है थका भी है
प्रज्ञा देवले✍️