बेबसी से बेबाकी तक

बहुत सी औरतें शायद ऐसी ही होती हैं। सिंदूर भरने वालों हाथों में कठपुतली बनकर रह जाती हैं। सिंदूरी हाथ जैसा नाच नचाते हैं, वे वैसा नाचती जाती हैं। कभी हवा में उड़ने वाली पतंग की तरह लगती हैं। न जाने कब किधर से कोई तेज हवा चल जाए और डोर टूट जाए। उनकी पलकों से दुखों का सागर बहने के लिए उमड़ता रहता है और वे हैं कि दाँतों से होंठों को दबाए अपने ही ज्वार-भाटा में पीसती जाती हैं। दिल में दुखों की अनंत गहराई जिसमें उतरने का साहस तो दूर जानने की जुर्रत नहीं करने वाला जमाना, किताबों में प्रशांत महासागर की गहराई पढ़कर स्वयं को ज्ञानी समझने लगता है। कितना अच्छा होता शब्दकोश से औरत के लिए स्त्री, महिला आदि शब्द हटाकर ‘पराई जिंदगी जीने वाली मशीन’ कर दिया जाता।  कम से कम इसे ही सच्चाई मानकर झूठमूठ के ‘नारी पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ जैसे ढोंगी कथनों से खुद को दूर रखती।

दो घरों के बीच शादी नाम की प्रथा के चलते किसी वस्तु की तरह विनिमय कर देने वाली जिंदगी कई अंतर्पीड़ाओं की अथक गूंज होती है। दान देने वाले और दान लेने वालों के बीच अग्नि को साक्षी मानकर सात कदम नापने वाली औरत किसी के लिए और तो किसी की औरत बन जाती है। और से औरत बनने की यात्रा में कइयों की जिंदगियाँ टूटकर चकनाचूर हो जाती हैं। कुछ के लिए सिर पर धरा बोझ तो कुछ के लिए सीने पर रखा पत्थर होती हैं औरत! अपने तन से किसी और मन के लिए जीना, अपने से पहले दूसरे के लिए सोचना, अपनी आँखों को किसी और के लिए बिछा कर रखना, अपने अस्तित्व को किसी और के लिए न्यौछावर कर देना, अपनी पीड़ाओं को किसी और के दुखों के लिए भुला देना, अपनी अधूरी जिंदगी को किसी की पूरी जिंदगी बनाने के लिए खुद को मिटा देना दुनिया में एक अकेली औरत ही कर सकती है। शायद इसीलिए धरती औरत है जो सब कुछ सहते हुए टस से मस नहीं होती, जबकि पुरुष आकाश की तरह स्वतंत्र होता है। अपनी मर्जी का मालिक होता है। जहाँ-तहाँ घुम फिर सकता है। कुछ बेड़ियाँ होती हैं जो दिखायी नहीं देती। केवल अनुभूत की जा सकती है।

औरत जिसका अर्थ है औरो के लिये अर्थात औरो मे रत रहने वाली। रात दिन औरो के लिये जीने वाली। औरो की पीड़ा को हरने वाली, खुद हार कर औरो को जिताने वाली। औरो को जन्म देने वाली फिर उसका पालन-पोषण कर योग्य बनाने वाली। ईंट-सीमेंट के बेजान मकान को घर बनाकर उसे सजाने-संवारने वाली। गलती चाहे किसी की भी हो, कमियॉ भले औरो मे हो पर दोषी वही ठहराई जाती है, क्योकि रिश्तो को संभालने की और उसको बचाने की भारी भरकम जिम्मेदारी सिंदूर के रूप में भर दी जाती है। जरा सी ऊंच-नीच हुई कि नहीं अपने घर की अदालत में खड़ी कर दी जाती है। कभी-कभी फैली हुई उंगलियों और थकी-झुर्राई माथे की सिलवटों के भीतर घुटती जाती है। घर में कई कमरे हैं, फिर भी उसके दुखों को बांटने वाली कोई जगह नहीं है। जो अक्षरमाला में ‘ओ’ से ओखली में सिर देने के लिए ‘औ’ से औरत बनकर जीती हो उसके लिए जीना भी मरने के समान प्रतीत होता है। 


डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त, मो. नं. 73 8657 8657