नजरों से ओझल

क्या तुम नाराज़ हो मुझसे...?

हूँ, क्या? अरे नहीं मैं क्यों नाराज होऊँगा?

क्यों मैं इतनी पराई हूँ कि तुम मुझपर नाराज़ भी नहीं होना चाहते?

अरे तुम भी कहाँ ले जा रही हो बात को। मैं कोई नाराज़ वाराज नहीं और जब होऊँगा तुम्हें बता दूँगा, बस.... हैप्पी!

मुस्कुराते हुए मैंने उसे देखा, उसने भी मुझे देखा, पल-दो पल नज़रे मिली और फ़िर हम मौसम को देखने लगे...।

जब नज़रों में बस जाने का ख़्याल आये तो देखना अनुचित ही होगा न क्योंकि हम दोनों तो कहीं और बसे बसाये से थे। 

मन का संवाद चल ही रहा था कि उसने कहाँ चलो मैं तुम्हें ड्राप कर दूँ?

अरे नहीं मैं ख़ुद चली जाऊँगी तुम जाओ तुम्हें दो घंटे लगेंगे वैसे भी ट्रैफिक ने जीना मुहाल कर दिया है। 

फ़िर भी....!

नहीं तुम जाओ प्लीज, बीच में उसकी बात काटती मैं चल पड़ी बस स्टैंड की तरफ़।

मैंने पलट कर देखा नहीं पर मेरा मन जानता है कि वो देखता रहा होगा मेरे नज़रों से ओझल होने तक।

~चंचल सिंह साक्षी

  सीतामढ़ी, बिहार

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