कविता एक नदी है , जो कवि के अन्तर्मन में उठने वाले विचारों से सँजती - सँवरती और संघर्षरत कल - कल निनाद करती निरंतर प्रवाहित होती रहती है । कवि मन में उठती भावनाएं काव्य रूप धारण कर अनेक बाधाओं को पार करती कोमल तंतुएँ ,कल्पना की सुंदर सरणि से निकलकर यथार्थ के थपेड़ों से प्रक्षालित होकर काव्य- रुप पाठक के सम्मुख प्रस्तुत होती है। ऐसे में सौंदर्यमयी सुकोमल कल्पित कल्पनाएं यथार्थ की कटूता को प्रस्तुत करने लगती है । कवि मन में उद्वेलित सुमधुर और सौम्य प्रेम भाव अनुभव के धरातल पर आकर अनायास ही गाम्भीर्य रूप धारण कर लेता है । यह सत्य है कि कविता का आरंभ कवि के मन में तरंगायित भावनाओं से होती है , जिसे बिम्बों-प्रतिबिम्बों , प्रतिमानों , उपमानों आदि के सहयोग से वह काव्य-रुप में व्यक्त करता है।
युवा महाकवि डॉ0 कन्हैयालाल गुप्त ' किशन ' की कविताएं प्रकृति की सुन्दरता , व्यापकता , साहचर्यता के साथ - साथ जीवन की कटू-यथार्थता को स्वरित करने में सफल रही है।
"काव्य - निर्झर" इनका प्रथम काव्य-संग्रह है। प्रेम सौदर्य , प्रकृति , धर्म - दर्शन के साथ सामाजिक और गृहस्थ जीवन का कटू - मधुर अनुभव का सुंदर और मार्मिक वर्णन भी इनकी कविताओं में यहाँ देखा जा सकता है।
भारतीय जीवन-मूल्यों एवं संस्कारों से रचा- बसा कवि अपनी कविताओं से देवी-देवताओं का स्तुति-वन्दन करता है। 'श्रीराम जन्मोत्सव', 'शिवरात्रि', 'रामायण', 'विद्या ' सरीखे कविताओं के माध्यम से कवि अपनी धार्मिक आस्था एवं पारंपरिक मान्यता को व्यक्त करता है । कवि वाग्देवी से विनम्रतापूर्वक निवेदन आग्रह करता है :-
" हे पुस्तकधारिणी माँ ! वरदान ज्ञान दे ।
प्रीति से जीवन में सरस मधुरता को भर दे ।
विघ्नों को ,कष्टों को,हरने की क्षमता भर दे ।
विद्या से जीवन को सुंदर सजीला बना दे। "
"विद्या" कविता से उद्घृत।
प्रकृति-चित्रण में कवि का मन अधिक रमा है। प्रकृति के अमर गान में वह भाव विभोर हो। उसी के साथ वह विचरण करने लगता है । उसके नित्य बदलते रुप- स्वरूप की प्रशंसा और गुणगान करते कवि भटकता ही नहीं बल्कि नदियां, झरने , खेत-खलिहान , पहाड़ , लहलहाले पेड़ - पौधे, फूल-पत्तियांँ , वायु , सूर्य की ऊष्मायुक्त स्वर्णिम किरणें,चाँद सितारों की रमणीयता को अपना संगी- साथी मानकर चलने लगता है।
कवि का कोमल मन कब सत्यता के धरातल पर पहूँचता है,पता ही नहीं चलता। एक तरफ पल प्रतिपल परिवर्तित होते प्रकृति के रूप से कवि आनंदित प्रफूल्लित होता है तो दूसरी ओर अपनी सुख सुविधाओं के लिए मनुष्य द्वारा प्रकृति का दोहन शोषण से आहत भी।
प्रकृति ईश्वर की सुंदर रचना है। प्रकृति से मानव जीवन संचालित होता है।हम ईश्वर की इस अप्रतिम रचना के लिए आजीवन ऋणी है।हमारी आने वाली पीढ़ियां ऋणी रहेंगी। उसके लिए जिसने हमारे लिए सुंदर, सुहावनी, श्यामली संपन्न बसुंधरा का निर्माण किया है। उसमें अद्भूत शक्ति-सामर्थ्य और सुंदरता का सृजन किया है। नदी, पहाड़, पेड़-पौधे, वन-उपवन, पुष्प आदि से उसकी गोद भरा है। इस मातृभूमि का कोटि-कोटि वंदन, अभिनंदन है। धरती की कोख से निकलने वाले छोटे-बड़े, हरे-हरे पेड़-पौधों ने इसकी छवि को आकर्षक, मनमोहक बनाया है-
"पेड़ धरती के श्रृंगार है,उन्ही पर टिका जीवन का आधार है।
पेड़ फल, फूल ,बीज देते हैं, पेड़ पक्षी,राही को छाया देते हैं।
पेड़ हरितिमा से बसुंधरा का सुंदर, सुकोमल, श्रृंगार करते हैं।।
(पेड़)
ऐसे ही धूप/ताप,बाग/उपवन, भोर,नदी,जल- संचय,विश्व पर्यावरण दिवस जैसे विविध कविताओं की रचना कर कवि प्रकृति की रमणीयता एवं सोदेभ्यता को काव्य-रुप में प्रस्तुत कर प्रकृति के प्रति अपनी आस्था और लगाव को प्रकट किया है। कवि प्रकृति प्रदत्त साधनों एवं अवस्थाओं का उन्मुक्त कंठ से गान करता है। वह उसकी अप्रतिम शक्ति और सौंदर्य से अभिभूत है परन्तु कई स्थानों पर प्रकृति और उसके साधनों को मनुष्य द्वारा नुकसान पहुँचाये जाने पर आहत होकर सभी को सचेत भी करता है। जनमानस को आगाह करता है कि प्रकृति के साथ खिलवाड़ का दुष्परिणाम अत्यंत भयावह होगा। मानव जीवन का अस्तित्व भी संकट में पड़ सकता है। विश्व स्तर पर आने वाले प्राकृतिक आपदा इसके ज्वलंत प्रमाण है।
ऋतुराज बसंत के आगमन मात्र से ही जनमानस में एक नई ऊर्जा का संचार होना। उसकी अनिवार्यता , उपयोगिता को सिद्ध करता है।प्राणियों में उमंग-उल्लास और आनंद की अनुभूति होती है । कोयल के सुमधुर सुरीले पंचम राग में सम्पूर्ण वातावरण भाव- विभोर हो उठता है। निराश और उदास वातावरण उत्साह, मोहक और प्रेमयुक्त माहौल पैदा करता है। बसंत कवि का सर्वाधिक प्रिय और मनभावक ऋतु है। अपनी रचनाओं में वह विविध रूपों एवं बसंतमयी रुपों एवं दृश्यों का चित्रण किया है। फाल्गुन, मेरी चुनरी उड़ती जाय रे, हे मधुमास तुम्हारा अभिनंदन है ' सदृश कविताओं में कवि उमंग और उत्साह से आनंदपूरित है। कवि उल्लसित भाव-विभोर हो , सभी बाधाओ से उन्मुक्त हो स्वतंत्र- स्वछंद विचरण करता है। बसंत का स्वागत करते हुए कवि कहता है-
"तेरे आने से प्रेमीजन प्रसन्न है ।
वे तुम्हारा अभिनंदन वंदन करते हैं ।
कोयल पंचम राग गाने को आतूर है ।
प्रकृति पर बासंती रंग चढ़ा है।
मन -आतुर और तन व्याकुल है ।
सभी-प्राणियों में प्रीत की लगन लगी है ।"
( हे मधुमास तुम्हारा अभिनंदन है)
एक अन्य रचना में कवि बसंत की मादकता से अभिभूत बसंत राग में पगा बसंती गायन करता है।
"बागों में कोयल प्यारी सी कूकने लगी ।
पपीहाका मन भी जोरों से धड़कने लगा।
आम्र कुंजों पर भ्रमर झुन्ड मड़राने लगे ।
गुनगुन गुनगुन वह गीत मधुर गाने लगे । "
बसंत के उल्लसित और हर्षित वातावरण का कवि अत्यंत तल्लीनता से उसके स्वर्णिम एहसास का अनुभव करता है, विचरता है।इस प्राकृतिक मदहोशी में वह इस हद तक रम जाता है कि वर्तमान जीवन की तमाम, बाधाओं , उलझनों से मुक्त हो, बेफिक्र हो ।स्वयं को बसंतमयी महसूस करता है।
“ मन बाँवरा डोला जाय रे ।
दिल को तो कोई समझाये रे ।
मन झूमें तन थरथराये रे ।
मोहे साजन नजर न आये रे ।
रूत की मस्ती मन डूबा जाये रे ।
मोहे साजन मनत भरमाये रे ।"
( मेरी चुनरी उड़ती जाये रे )
काव्य-संग्रह में स्त्री विषयक कई कविताएं हैं । जिनमें माँ , बहन , पत्नी, प्रेयसी समसाममायिक परिवेश में उत्थान करती स्त्री केन्द्र में है ।माँ के संदर्भ में कवि मन अत्यंत भावुक और लगाव से प्रेरित है । माँ का नि:स्वार्थ प्रेम इसके लिए अमूल्य थाती है। वह सदैव उसे अपनी ओर आकर्षित करता है। कवि माँ-पुत्र के वात्सल्य प्रेम की सुंदर मार्मिक अभिव्यक्ति करता है -
"माँ तेरी याद आती है जब मन हताश निराश होता है तब। माँ तेरी याद आती हैं जब इस स्वार्थी संसार में नि:स्वार्थी खोजता हूं तब।
माँ तेरी याद आती है जब थक हार कर शांति हेतु आँचल ढूँढता हूँ तब।"
(माँ)
प्रकृति प्रेम का मान-गान करने वाला कवि जन प्रेम तथा व्यक्ति प्रेम से भी पृथक नहीं है । कई कविताओं
में प्रेमानुभूति की निजता स्पष्ट हुई है । प्रथम मिलन का युगल - प्रेम अविस्मरणीय है। वर्षोपरांत भी उसकी धीमी गंध की सजीवता जीवंत है । जिसकी अनुभूति अभिव्यक्ति हुई है।
"जब हृदय के तारों को तुम ने प्रथम बार झंकृत किया था।
प्रथम बार इन युगल नेत्रों ने तृप्ति का अनुभव प्राप्त किया था ।
हृदय ने जब प्रथम बार तेरे दर्शन प्राप्त कर धड़कना भूल गया था।"
याद है वो पहली अनुभूति तुम्हें जब तेरा सौदर्य मेरे प्रीति का यश बना।
फिर पथ पर सहस्त्रों प्रेमगीत बिखर पड़े थे जो सब तेरे प्रेम में उपहार दे आया था ।
आज उन प्रेमगीतों को पुन: गुंजायमान कर दो, मेरे प्रेम पथ को जगमग कर दो ।
( खिड़की ) प्रियतम से दूर प्रिया-विरहाग्नि में तिल-तिल कर जल रही है। मिलन की तृष्णा में तीव्र व्याकुलता है परन्तु असहाय और विरहयुक्त भी है। प्रिय तक संदेश पहुंचाने वाला कोई नहीं । आकाश मे उमड़ते - घुमड़ते काले मेघ उसके विरह की ज्वाला को और तीव्र कर रहे हैं । प्रियतमा मेघ को ही अपना संदेशवाहक मान , अपनी मनोदशा का वर्णन करती है-
"ओ बरसों काले बदरा मन बसे है मोरे सजना।
प्रीत तरसी है आग लगी है बरस रहा है पानी ।
बरस बरसकर साजन को तुम याद दिला जा।
बरसो की उन प्रीति-रीति से तन मन बहला जा ।
(वो बरसों काले बदरा )
काव्य संग्रह की 'झरना', 'सादाजीवन','मन' ,चरित्र,'जिन्दगी' जैसी अनेक कविताओं में कवि की मानवतावादी सोच प्रमुख है। भारतीय जनजीवन एवं मानव समाज के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाता हुआ कवि सतत प्रयत्नशील है। जीवन की अनेक बाधाओं , संकटों एवं संघर्षों से दो-दो हाथ करता कवि जीवन के प्रति सदा आशान्वित हैं।तभी तो वह जीवन को बहुरंगी झरना मानता है-
"जीवन क्या है इक झरना है ,सुख दुख दो इसकी धारा है। कभी हँसती है , कभी गाती है , जीवन के गीत सुनाती है । कभी हाँस तो है परिहास तो है जीवन का मधुमास तो है। झरना कलकल यूँ गाती तो बीती यादों की सुनाती तो है । कब प्रेम हुआ कब प्रीति जगी, जीवन की मधुरीति बनी । कुछ भूल गया कुछ याद रहा, कुछ जीने की सौगात बनी। "
(झरना) आज साम्पूर्ण विश्व कोरोना जैसी भयंकर विनाशक महामारी से आशंकित-आतंकित होकर जीवन के लिए संघर्ष कर रहा है । कवि मन इस भययुक्त परिवेश में भी अपनी सकारात्मक सोच का साथ नहीं छोड़ता । इस विषय पर भी उसका सर्जन जारी है।अपनी कविता में कवि उन लोभियों का पर्दाफाश करता है। जो निजी लाभ - हेतु महामारी को बढ़ावा देते हैं।
"महाभारी ने पाव पसारा है।
मानवता पर संकट भारी है ,
लोभ -लिप्सा, सामाज्यवाद ने
दानवता जगाई है,
सहस्त्रफणों की लोलुपता ने
यह महामारी फैलायी है,
अर्थ की भूख ने आज
ऐसा दिन दिखलाया है ,
मर रहे हैं लोग,तड़प रहे हैं लोग ,
चीत्कार संमार भर में समाया है । "
( व्यापार ) ' आओ हम फिर दीप जलाये ', ' जगमगाया हिन्दुस्तान' , 'नया सबेरा', 'लहराओं तिरंगा', 'तलाश' जैसी अनेक कविताओं में कवि का राष्ट्र प्रेम एवं राष्ट्रीय भावना प्रस्फुटित हुई है। भारत वर्ष सदैव करे। प्रगति के पर अग्रसरित हो, विश्व का नेतृत्व करें। यही तो कवि की कामना है। भारतीय होने पर कवि स्वंय को गौरवान्वित अनुभव करता है ।
"काव्य निर्झर" मे संकलित कविताओं के जरिये कवि का राष्ट्र-प्रेम , प्रकृति-प्रेम के साथ कल्पित स्वर्णिम संसार तो है , साथ ही यथार्थ से संघर्ष करता मानव जीवन भी यहां देखा जा सकता है ।भविष्य में और परिपक्वकता,गंभीरता की अपेक्षा है ।
कवि कन्हैया लाल गुप्त "किशन" को "काव्य निर्झर" संग्रह के लिए शुभकामनाएं
डॉ0 संजय चौहान, लेखकअमृतसर विश्वविद्यालय,पंजाब(भारत) में हिन्दी विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं