हँसती हूँ, मुस्कुराती हूँ
सब पर प्रेम लूटाती हूँ
जैसा सांचा मिल जाता है
उस में ही ढ़ल जाती हूँ।
माँ पिता का घर छोड़कर
नए रिश्ते सजाती हूँ
दिन रात मेहनत करती हूँ
हर दर्द खुशी से सहती हूँ।
पर अफसोस की कोई,
मुझे भी समझ पाता
काश मेरे अंतर्मन के
शोर को कोई सुन पाता।
जीवन रूपी मंदिर में मैं
दिया बनकर जलती हूँ
खुद तिल-तिल के जल कर
औरों का घर रौशन करती हूँ।
अपने सपनों को तज कर
दूसरों के स्वप्न सजाती हूँ
हर काम में हिस्सा लेती
गृहस्थी की गाड़ी चलाती हूँ।
खुली हुई किताब हूँ मैं
कोई मुझे भी पढ़ पाता
काश मेरे अंतर्मन के
शोर को कोई सुन पाता..।
-- सोनी पटेल
मुजफ्फरपुर , बिहार