यूं ही बहल बहल जाता है
समझता नहीं मक्कारियां
बस हामी दिए जाता है
उलझ सी जाती है आईने में
खूबसूरती मेरी
जब बखान करते हैं मेरे
हुस्न का मुझे बहलाने के लिए।
रिश्तो का पुलिंदा
रिश्तो मुझे सौप जाते हैं
जन्म देने वाले कहां
उम्र भर निभाते हैं
ना हक देते हैं मुझे
किसी घर जमीन का।
मैं हूं सिर्फ घर की मालकिन
कहलाने के लिए ।
आधी सी यहां भी हूँ ,
अधूरा सा वहां भी लगता है
अंश का पौधा पूर्ण होने के लिए
ही पनपता है
दे जाते हैं जख्मों पर मरहम
कभी कभी कभी
सुख समृद्धि का सुख
पाने के लिए ।
देकर हर दर्द अनजान
सा बन जाते हैं
बेपरवाह से लोग यहां
परवाह का किरदार निभाते हैं
जलता रहे चूल्हा,उनका चक्की
भी चलती रहे
बस इसीलिए औरत जीती है क्या
अन्नपूर्णा कहलाने के लिए।
इस मिट्टी की मूरत में प्रभु
कुछ तो रुतबा भरा होता
वो वंश बढ़ाए ,मान दिलाएं ,
कुछ सम्मान दिया होता
बना दी आपने भी एक औरत
समाज मे दिखावे के लिए।
बस जीती रहे औरत
सबको बना कर
बस खुद को मिटाने के लिए।
सरिता प्रजापति,दिल्ली