अश्रु से दीप पावन जलाती चली।
प्रीत के द्वार सांकल लगी थी सदा,
भाव की अल्पना हिय सजाती चली।
नेह की बूँद बन झर रही मेघ से,
गिर धरा धीर अंकुर उगाती चली।
प्रेम ने है दिया विष का प्याला मुझे,
भावना की सुधा मैं बहाती चली।
चुन सुकोमल सुमन गूँथती हार थी,
चुभ रहे शूल से कर बचाती चली।
बावरा मन सदा डूबता प्रीत में,
थाम पतवार कश्ती चलाती चली।
साँझ हो या सुनहरी किरन भोर की,
मैं दिये से अँधेरा भगाती चली,
पत्थर से बहुत खाई हैं ठोकरें,
राह अपनी मैं फिर भी बनाती चली।
सीमा में न बँधी मैं असीमित बनी,
मीरा बन बाँसुरी मैं बजाती चली।
सीमा मिश्रा,बिन्दकी-फतेहपुर, उत्तर प्रदेश