अपनी अधसूखी टहनियों को
निहारती हुई सोचती है।
कुछ दिनों पूर्व मुझ पर
कितना सौंदर्य था !
गुलाबी कोंपलो से सजी
गुच्छों की रंगत
हेमंत की गुनगुनी धूप में
लहक उठी थी मेरा सौंदर्य
और अल्हड़पन।
उफ़ !क्या कहूँ गुलाब भी
झेप जाता !और मैं
आत्मप्रेम में मुग्ध -सी
कितना आ इतराती थी,
हवा के संग अठखेलियाँ करती
कितना आ मुस्कुराती थी !
मेरी पंखुड़ियाँ हवा से
बिखरती जो नही थी
और न ही
काँटों से लिपटती ही थी !
हरे पत्तों की कोंपलो से
विकसित हुई गुलाबी फूलों -सी
पत्तियों का गुच्छ !जो अब
शिशिर के सर्द प्रहार से
जीर्ण -शीर्ण सी हो गई है !
किन्तु इस समय की मार को
जीत जानें की जिद में
पूर्ण ऊर्जा को सहेजे
बीतते दिसम्बर के साथ
प्रतीक्षारत सी !कि शायद
उम्मीद को उड़ान मिले
नव वर्ष शायद फिर नई बहार मिले !
जो परिस्थितियों से न डरे
पतझड़ में न झरे,
शिशिर, शरद, हेमंत, वसंत
कभी न हो जिसका अंत !
उम्मीद की यह उड़ान
जीत लेती है
विपत्तियों की थकान।
नीरजा बसन्ती
गोरखपुर-उ0 प्र0-918858544475