वॉलपोस्टरों से ताकता हिंदुस्तान

बुद्धि जब सोचने-समझने की क्षमता खो देती है तब हम अपने पैरों पर न चलकर भ्रम के पैरों पर चलने लगते हैं। भ्रम का मायाजाल कुछ इस तरह सिर चढ़कर बोलता है कि मानो तालाब में खिले कमल कह रहे हों कि हम तुम्हारे लिए ही खिले हैं। दूर गगन में टंगा आसमान मानो हमारे आंगन में फुटबाल की तरह गिरा पड़ा है। बचपन की बुद्धि सोचने-समझने से नहीं कुटिलताओं से परे होती है। कितना अच्छा होता कि यह बचपन जीवन की सभी दशाओं में सबसे लंबी अवस्था होती। न किसी से छल करते न किसी से झूठ बोलते। खुद में मस्त होकर जहाँ चाहे वहाँ खेलते-कूदते।         

प्रदूषण की माया ने आसमान के तारों को रंग-बिरंगे कागजों में झिलमिलाने के लिए मजबूर कर दिया है। एक समय था जब आंगन के डार पर टंगी सादी साड़ी के इस पार से उस पार के तारों को देखने पर ऐसा लगता मानो किसी ने आकर साड़ी पर सितारे टांक दिए हैं। जब जिंदगी खुद धुआँ-धुआँ सा लगने लगे तब आसमान के तारों की बात करना बेईमानी होती है। पहले देशभक्ति रगों में दौड़ती थी। अब खादी के कपड़ों और चौराहे से खरीदे प्लास्टिक के झंडों में सिमटी बैठी है। था एक समय जब मतवालों की तरह जयहिंद-वंदेमातरम-इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाते हुए निकल पड़ते थे किला फतेह करने। अब गालों पर तिरंगा रंग लगाए, चंद नाखून और बाल कटवाकर खूद को देश के लिए होम होने वाला बड़ा देशभक्त घोषित कर लेते हैं। गलों के पावन मंदिर से निकलने वाले देशभक्ति गीतों के स्थान पर बेतूके गानों की धूम मची है। न स्वतंत्रता दिवस का ज्ञान न गणतंत्र का। बस इतना पता है कि दोनों दिन झंडा फहराते हैं और छुट्टी होती है। न जाने हमारे देश में कैलेंडर कौन बनाता है जो इन दिवसों को राष्ट्रीय पर्व के रूप में दिखाता है। वह तो भला हो हमारी नवपीढ़ी का जो उसे सुधारकर छुट्टी के रूप में मनाने का कोई अवसर नहीं गंवाते।

यादों की दुनिया में विचरना भ्रम ही तो है। रुपए-पैसे और नाम कमाने के खेल में हम इतने रम गए कि खुद के आगे देश को बौना समझने लगे। देश को मिट्टी का टुकड़ा समझकर खुद को बेशकीमती समझने लगे। अपनी कल्पनाओं की दुनिया में विचरते हुए ऐंठन में कॉलर का उठाना, जात-पात, धर्म के नारे लगाने वाले शायद यही कुछ जमापूँजी के रूप में बचा रहे हैं। वालपोस्टरों में चेहरे दिख जाने से पेट थोड़े न भरेंगे। भूख बनाम देशभक्ति के खेल में हम किस तरफ हैं, इसका निर्णय समय रहते लेना होंगा। संकीर्ण खिड़कियों से झाँकना बंद करना होगा। लाखों सूर्य की रोशनी के लिए अपने भीतर के दरवाजें खोलने होंगे। तभी शायद हम इंसान कहलाने लायक बनेंगे।   

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त, मो. नं. 73 8657 8657